Wednesday 30 April 2014
Tuesday 29 April 2014
Saturday 26 April 2014
बीजेपी का अंतर्विरोध
मान लेना चाहिए कि नरेंद्र मोदी देश के अगले प्रधानमंत्री बनेंगे. जिस तरह उनकी सभाओं में भीड़ उमड़ रही है और जिस तरह का उनका प्रचार चल रहा है, वह दर्शाता है कि सारा देश उनके साथ है. बस, थोड़ी-सी कसर सर्वे रिपोर्ट्स बता रही हैं. भारतीय जनता पार्टी को अकेले 170 से 180 सीटें और सहयोगियों के साथ एनडीए की कुल सीटें 220 से 230. कोई भी सर्वे 230 से आगे नरेंद्र मोदी के एनडीए को नहीं ले जा पा रहा है. दरअसल, यह एनडीए भाजपा का नहीं है, यह एनडीए नरेंद्र मोदी का है और एनडीए की सीटों की संख्या बढ़ती नहीं दिखाई दे रही है. जो दल एनडीए के साथ जुड़े हैं, उनके पास शिवसेना और अकाली दल को छोड़ दें, तो एक या दो सीटें भी शायद ही उन्हें मिल पाएं. अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं और मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनते हैं, तो देश क्या दृश्य देखेगा, इस पर बात करनी चाहिए. सबसे पहला सवाल कि यह चुनाव भारतीय जनता पार्टी नहीं लड़ रही है.
सबसे पहले, यह चुनाव भारतीय जनता पार्टी नहीं लड़ रही है, नरेंद्र मोदी लड़ रहे हैं. इस चुनाव की एक बड़ी विशेषता है कि देश में दो व्यक्तित्व सामने दिखाई दे रहे हैं. नरेंद्र मोदी ने भाजपा की साख शून्य कर दी है और देश के लोगों को यह बता दिया है कि अगर भाजपा चुनाव लड़ती, तो उसकी सीटें 100 से 125 तक होंती. नरेंद्र मोदी चुनाव लड़ रहे हैं, तो भारतीय जनता पार्टी की सीटें 170 से 180 तक जा सकती हैं. अब तक भाजपा के पास सबसे ज़्यादा सीटें 182 रही हैं. यह अफ़सोस की बात है कि नरेंद्र मोदी सब कुछ करने के बाद यह विश्वास नहीं दिला पा रहे हैं कि अकेली भारतीय जनता पार्टी 182 की संख्या पार कर पाएगी या नहीं. हम अगर इस बात पर विश्वास करें कि भाजपा 200 सीटें ले आती है और उसके सहयोगी 30 या 35 सीटें ले आते हैं, तो भी उसके कुल साथियों की संख्या 235 या 240 से आगे नहीं होती है. बची हुई 40 सीटें भाजपा के लिए प्राप्त करना बहुत बड़ी टेढ़ी खीर नहीं है, लेकिन टेढ़ी खीर ज़रूर है, क्योंकि वहां पर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर अभी थोड़ा संशय पैदा हो सकता है.
पहला तथ्य, भारतीय जनता पार्टी की जगह नरेंद्र मोदी नामक शख्स, जो अपने आप में एक बड़ी पार्टी बन गया है, चुनाव लड़ रहा है और यह सारा काम नरेंद्र मोदी के प्रचारतंत्र ने किया है. नरेंद्र मोदी का प्रचार तंत्र अबकी बार भाजपा सरकार का नारा नहीं दे रहा, बल्कि अबकी बार मोदी सरकार, इसका नारा दे रहा है. इसका मतलब है कि अगर भारतीय जनता पार्टी में सीटों की किसी भी कमी को लेकर यह चर्चा चलती है कि नरेंद्र मोदी की जगह कोई दूसरा प्रधानमंत्री बन जाए, जो मौजूदा एनडीए के साथियों के अलावा अनिवार्य सहयोगियों की शर्त के मुताबिक हो, तो किसी दूसरे का नाम भारतीय जनता पार्टी स्वीकार नहीं करेगी.
संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने यह बात भाजपा के सभी नेताओं को बता दी है कि अगर बहुमत एनडीए का नहीं आता है, तो वह बहुमत लाने के लिए नरेंद्र मोदी की जगह किसी दूसरे को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं स्वीकार करेंगे. उन्होंने यह साफ़ कर दिया है कि उस स्थिति में भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में बैठना पसंद करेगी, लेकिन नरेंद्र मोदी को बदलने के बारे में नहीं सोचेगी. दरअसल, इसके पीछे संघ की एक पुरानी मान्यता है, जिसके बारे में हम लगातार लिखते रहे हैं. संघ यह मानता है कि भारतीय जनता पार्टी को लालकृष्ण आडवाणी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, मुरली मनोहर जोशी जैसों से मुक्त होना होगा और एक नई भाजपा गढ़नी होगी. पहले उसने इसके लिए बीस साला कार्यक्रम बनाया था, जिसमें उसका मानना था कि इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी अगर हार जाती है, तो इन सारे लोगों को नेतृत्व की कतार से बाहर धकेल दिया जा सकता है. अब उसकी दूसरी रणनीति है कि नरेंद्र मोदी को सामने रखकर इन बाकी लोगों को भारतीय जनता पार्टी से अलग करके नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक नया नेतृत्व वर्ग पैदा किया जा सकता है, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खालिस सिद्धांतों में भरोसा करता हो. संघ के इस ़फैसले के पीछे यह सत्य छिपा हुआ है कि अगर नरेंद्र मोदी की जगह किसी दूसरे को स्वीकार्यता के सिद्धांत पर चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए लाया गया, तो पार्टी टूट जाएगी और पार्टी का बड़ा वर्ग, चुने हुए सांसदों का बड़ा वर्ग नरेंद्र मोदी के साथ चला जाएगा, क्योंकि भारत के चुनाव के इतिहास में पहली बार भारतीय जनता पार्टी ऐसे चुनाव लड़ रही है, मानों उसे ईश्वरीय संकेत मिल गया हो कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की एक बुनियादी शर्त है कि भारतीय जनता पार्टी अकेले 215 सीटों के आसपास जीते और उसके सहयोगी कम-से-कम 30-35 सीटें जीतें, तब बचे हुए निर्दलीय या छोटी पार्टियां, जो 15, 20, 30 सीटें लाती हैं, उसका समर्थन करें, तब भी उसे सामान्य बहुमत ही मिलता है. यहां यह ध्यान देना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी या नरेंद्र मोदी ने कभी भी यह अभियान ही नहीं चलाया कि उन्हें दो तिहाई सीटें मिलेंगी. इस अभियान के न चलाने के पीछे मुझे एक आत्मविश्वास की कमी दिखाई देती है, जो यह कहता है कि भारतीय जनता पार्टी को 272 सीटें सहयोगियों के साथ लाने में भी शंका है. इसीलिए उन्होंने सामान्य बहुमत का आंकड़ा 272 का नारा दिया है. अब 272 से एक ज़्यादा पर सरकार बनती है, तो 272 से 100 ज़्यादा पर भी सरकार बनती है. लेकिन, भारतीय जनता पार्टी इस नारे का इस्तेमाल नहीं कर पाई. शायद अपनी उसी संगठन और आत्मविश्वास की कमी की वजह से वह यह दावा नहीं कर सकती कि उसे दो तिहाई बहुमत इस बार मिलेगा ही मिलेगा. जब यह दावा नहीं है, तो कैसी मोदी की लहर है, यह सवाल दिमाग में घुमड़ता है. यह सवाल नीतीश कुमार की तरह का सवाल नहीं है, न यह सवाल केजरीवाल की तरह का सवाल है. यह सवाल एक खालिस भारतीय राजनीति की स्थितियों के भीतर से उपजा हुआ सवाल है.
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे, तो देश में विकास होगा, यह विकास अच्छा ही होना चाहिए. गुजरात में जिन लोगों को विकास नहीं चाहिए, उन्हें विकास के दायरे से बाहर छोड़ दिया गया है. इसकी बात देश के सामने न मीडिया लेकर आया है और न अन्य लोग, लेकिन मैं इसे इस तरह से देखता हूं कि देश का विकास भी गुजरात के विकास की तरह होगा. जब हम नरेंद्र मोदी के साथियों से मिलते हैं, तो उनका यह कहना है कि नरेंद्र मोदी 6 महीने के भीतर कुछ इस तरह की घोषणा करेंगे, जिससे देश का मुस्लिम समाज, जो आज उनके साथ नहीं जाना चाहता या एक बड़ा वर्ग, जो नरेंद्र मोदी से पूर्वाग्रह रखता है या घृणा करता है, वे सारे लोग नरेंद्र मोदी के कायल हो जाएंगे और उनका साथ देने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाएंगे.
नरेंद्र मोदी के साथियों का यह कथन या उनका यह विश्वास इस देश के भविष्य के लिए अच्छा संकेत है, लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ, तो क्या होगा? अभी तक नरेंद्र मोदी, उनके स्पोक पर्सन अमित शाह या अरुण जेटली या रविशंकर प्रसाद, कोई यह नहीं कहता है कि वे हिंदुस्तान के दबे-कुचले, पिछड़े लोगों, जिनमें मुसलमानों की एक बड़ी संख्या है, के लिए कोई विशेष कार्यक्रम बनाएंगे. वे यह मानकर चल रहे हैं कि वे देश के ग़रीबों के लिए जो कार्यक्रम बनाएंगे, उसी में उनका भी हिस्सा होगा. इसका उदाहरण रविशंकर प्रसाद देते हैं कि गुजरात के गांवों में बिजली आती है, तो मुसलमानों को भी बिजली मिलती है और जब पीने के पानी का सवाल आता है, तो नर्मदा के पानी की वजह से जितना जलस्तर ऊपर उठा है, उससे मुसलमान भी पानी पीते हैं. यह बात सुनने में अच्छी लगती है, लेकिन इसे एक दूसरी तरीके से देखें. एक घर में एक स्वस्थ बच्चा है और एक मालन्यूट्रीशन से ग्रस्त है, तो क्या दोनों को एक ही तरह का खाना देंगे, एक ही तरह के रहन-सहन का स्तर देंगे? या किसी को टीबी हो गई है, उसकी बीमारी दूर करने के लिए क्या उसकी तरफ़ विशेष ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए? ये सवाल भारतीय जनता पार्टी के सामने प्रमुख नहीं हैं.
मोदी के प्रधानमंत्री न बनने के पीछे कुछ कारण हैं, जो महत्वपूर्ण हैं. पहला कारण पार्टी का अंतर्विरोध है. पार्टी के नेता यह मानते हैं कि पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बहुत अच्छे रणनीतिकार हैं और उनमें और नरेंद्र मोदी में एक समझौता हो गया है कि इस बार प्रधानमंत्री राजनाथ सिंह बनेंगे, नरेंद्र मोदी गुजरात को संभालेंगे और अगली बार नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे, राजनाथ सिंह राजनीति से संन्यास ले लेंगे. यह शुद्ध अफवाह हो सकती है, लेकिन जिस तरह का स्वभाव राजनाथ सिंह का है और जिस तरह से वह स्थितियां पैदा करते हैं, उसके अनुसार भाजपा मित्रों का कहना है कि यह अफवाह सत्यता में भी बदल सकती है. लेकिन अंतर्विरोध स़िर्फ राजनाथ सिंह और नरेंद्र मोदी का नहीं, अंतर्विरोध पार्टी के उन सभी लोगों का है, जो सामूहिक नेतृत्व में विश्वास करते हैं. अभी तक भारतीय जनता पार्टी में 2009 तक अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और जोशी जी का सामूहिक नेतृत्व चला था. धीरे-धीरे इन तीन लोगों से बढ़कर नौ लोगों की संख्या हुई, जिनमें अरुण जेटली, सुषमा स्वारज, जसवंत सिंह, वेंकैया नायडू, अनंत कुमार जैसे लोग शामिल थे. इसके नीचे भी एक सीढ़ी तैयार हुई थी, जिसे हम तीसरे दर्जे का नेतृत्व कह सकते हैं, पर अब नरेंद्र मोदी के आने से ऊपर की सारी सीढ़ियां अप्रासंगिक हो गई हैं और नरेंद्र मोदी अकेले पहली, दूसरी, तीसरी कतार के नेता बन गए हैं. दूसरी कतार का भारतीय जनता पार्टी में अगर कोई नेता है, तो वह अमित शाह हैं. अमित शाह नरेंद्र मोदी के गृहमंत्री बनने वाले हैं. इसलिए मुझे यह लगता है कि भारतीय जनता पार्टी में जो पीढ़ी नेतृत्व की कतार से बाहर जा रही है, वह पीढ़ी अपना आख़िरी दांव आजमाएगी और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने में रोड़ा पैदा करेगी.
दूसरी चीज, अगर भारतीय जनता पार्टी के पास सहयोगियों के साथ 200 या 220 या 230 सीटें आती हैं, तो फिर भारतीय जनता पार्टी का भावी सहयोग कहां से आएगा? हालांकि सहयोग मिलने में कोई दिक्कत नहीं, कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए. उत्तर प्रदेश में जहां समाजवादी पार्टी रहेगी, वहां बहुजन समाजवादी पार्टी नहीं रहेगी. तमिलनाडु में जहां करुणानिधि रहेंगे, वहां जयललिता नहीं रहेंगी. आंध्र में जहां चंद्रबाबू रहेंगे, वहां जगन रेड्डी नहीं रहेंगे. बंगाल में जहां कम्युनिस्ट रहेंगे, वहां ममता नहीं रहेंगी. बिहार में जहां लालू रहेंगे, वहां नीतीश नहीं रहेंगे. हालांकि जिनके मैं नाम ले रहा हूं, इनमें किसे कितनी सीटें मिलेंगी, अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन आज की स्थिति में ये परस्पर बैरी दिखाई देते हैं. इस स्थिति में नरेंद्र मोदी को सहयोगी मिलना मुश्किल नहीं नज़र आता, लेकिन इन सबमें अगर मुस्लिम वोट कोई फैक्टर है, तो ममता बनर्जी के सामने एक बड़ा सवालिया निशान है कि वह नरेंद्र मोदी का कैसे समर्थन करेंगी या नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी का कैसे समर्थन करेंगे. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह नरेंद्र मोदी का कैसे समर्थन करेंगे, पर बची हुई सीटों को लेकर भी नरेंद्र मोदी सरकार बना सकते हैं और इन सारे अंतर्विरोधों पर विजय पा सकते हैं. इसमें कोई संशय मुझे दिखाई नहीं देता है.
नरेंद्र मोदी के पक्ष में 18 से 24 साल की उम्र के नौजवान हैं, वे हर जगह मोदी-मोदी चिल्ला रहे हैं. मोदी ने भी अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से की और उनके उस भाषण से नौजवानों का उनके प्रति आकर्षण बढ़ा. हालांकि, यह आकर्षण राहुल गांधी की तरफ़ होना चाहिए, लेकिन राहुल गांधी अपने भाषण से नौजवानों के मन में कोई आशा नहीं जगा पा रहे हैं. हालांकि आशा नरेंद्र मोदी भी नहीं जगा पा रहे हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी ने एक चीज स्टैबलिश की है कि वह प्रशासनिक स्तर पर, व्यवस्था संचालन के स्तर पर जितनी गड़बड़ियां हुई हैं, उनको ठीक कर सकते हैं. इसीलिए हिंदुस्तान के गांव में मोदी-मोदी-मोदी और खासकर 18 से 24 साल के लड़के इस चुनाव को बिल्कुल वैसे ही ले रहे हैं, जैसे कॉलेज यूनियन का इलेक्शन होता है. यह नरेंद्र मोदी के लिए एक बड़ी आशा है. हालांकि, सरकार बनाने की स्थिति में शायद नरेंद्र मोदी की सहमति से राजनाथ सिंह ने यह ़फैसला किया कि जो भी दोषी पार्टी छोड़कर आता है, उसे भाजपा में शामिल कर लो. कांग्रेस से आए हुए, आरजेडी से आए हुए लोगों को उन्होंने रखा भी और कुछ लोगों को रखा और निकाला भी. यह स्थिति बताती है कि भाजपा अपने प्रचार अभियान को लेकर, उसके नतीजे को लेकर, बहुत निश्चित नहीं समझती, अन्यथा वह ऐसे किसी शख्स को अपनी पार्टी में नहीं लेती, जो उनकी पार्टी का नहीं है या कम से कम उस पार्टी का है, जो वैचारिक रूप या राजनीतिक रूप से उसकी प्रबल दुश्मन रही है और इनमें कम से कम दो पार्टियों के नाम तो लिए जा सकते हैं, पहला कांग्रेस का और दूसरा आरजेडी का.
नरेंद्र मोदी के सामने चुनौतियां हैं. भारतीय जनता पार्टी भी उनके लिए चुनौती है. संघ शायद अभी चुनौती नहीं है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी से बाहर जो पक्ष चुनाव लड़ रहे हैं, वे भी उनके लिए कहीं न कहीं चुनौती साबित होंगे. जिस तरह से अपने भविष्य के साथियों से संपर्क करना चाहिए, उसकी कोशिश अवश्य नरेंद्र मोदी ने शुरू कर दी होगी. एक चीज ने और शंकाएं पैदा की हैं कि इस बार चुनाव लड़ने के लिए भाजपा ने जितने अभिनेताओं को खड़ा किया है, उतने पहले कभी चुनाव में खड़े नहीं हुए थे. शायद इसके पीछे एक कारण अच्छे उम्मीदवारों का न होना भी हो सकता है, लेकिन दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि इस देश के लोग इतने बेवकूफ हैं कि वे किसी को भी वोट दे सकते हैं, जो उनके यहां कभी आया हो या न आया हो, उसने काम किया हो या न किया हो, उसमें समझदारी हो या न हो. लोग नहीं देखेंगे, चूंकि वह भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस का उम्मीदवार है, इसलिए उसे वोट दे देंगे. यह समझ नरेंद्र मोदी और कांग्रेस दोनों में है, लेकिन इस समझ ने हिंदुस्तान के लोगों की उस मानसिकता को ज़रूर उजागर किया है, जिसके बारे में कहा जाता है कि हिंदुस्तान के लोगों को चुनाव के समय आसानी से बेवकूफ या मूर्ख बनाया जा सकता है. अब यहां देश के लोगों को ़फैसला करना है कि क्या वे सचमुच मूर्ख बन रहे हैं या बनना चाहते हैं? अगर बनना चाहते हैं, तो उनकी कोई मदद नहीं कर सकता और अगर नहीं बनना चाहते, तो यह चुनाव भारतीय मतदाताओं के दिमाग का एक कड़ा परीक्षण भी साबित हो सकता है. नरेंद्र मोदी के पक्ष में सबसे बड़ी बात कांग्रेस पार्टी का ढुलमुलपन है. कांगे्रस पार्टी ने नरेंद्र मोदी का सामना करने का सांगठनिक तौर पर कोई प्रयास ही नहीं किया. कांग्रेस पार्टी के दो सर्वोच्च नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी नरेंद्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी के अंतर्विरोधों को न समझ पाए और न उनका फ़ायदा उठा पाए. देश में अच्छी योजनाएं कैसे भ्रष्टाचार बढ़ाने में सहायक होती हैं, इसका कांग्रेस पार्टी ने सबसे अच्छा उदाहरण देश के सामने रखा है. नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच की तुलना में लोग नरेंद्र मोदी को पसंद कर रहे हैं. उच्च वर्ग, जिनमें प्रमुख बैंकों के अधिकारी एवं आर्थिक जगत के बड़े लोग शामिल हैं, तो यह कह रहा है कि हमें एक हिटलर जैसा शख्स चाहिए, जो इस देश की अर्थव्यवस्था को सुधार सके और उनका अर्थव्यवस्था सुधारने से मतलब इस देश में बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था का पैर फैलाना है, ताकि उसके विरोध में कोई आवाज़ न उठ सके. इसके लिए वे नरेंद्र मोदी को सर्वथा उपयुक्त व्यक्ति समझते हैं. इसलिए उच्च मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग में नरेंद्र मोदी का नाम देश में भविष्य के सफल प्रशासक के रूप में लिया जा रहा है. राहुल गांधी को वे बच्चा मानते हैं और उनका मानना है कि यह देश तबाह हो जाएगा, अगर राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री पद पर आते हैं.
मैंने रविशंकर प्रसाद से पूछा कि आख़िर भाजपा कब अकेले सरकार बनाने की बात करेगी या वह सहयोगियों की शर्तों पर ही सरकार बनाने की योजना बनाती रहेगी? इसका जवाब रविशंकर प्रसाद ने घुमा-फिरा कर दिया. मैंने यह भी पूछा कि क्यों इन दिनों भारतीय जनता पार्टी की नहीं, मोदी सरकार की बात हो रही है, क्या मोदी भारतीय जनता पार्टी से बड़े हो गए हैं? इस सवाल के जवाब में रविशंकर चुप रहे. मेरा तीसरा सवाल था कि आज की समस्याएं क्या खुली नव-उदारवादी बाज़ार व्यवस्था की देन हैं? मौजूदा अर्थव्यवस्था की वजह से भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोज़गारी, आतंकवाद और सांप्रदायिकता में वृद्धि हुई है या इसकी जड़ में खराब राजनीतिक शैली ही है? इन सवालों पर भी साफ़ जवाब देने से रविशंकर बच गए. अर्थनीति के सवाल से अलग मैंने अरुण जेटली से पूछा कि क्या आपको पता है कि देश में मुसलमानों की संख्या कितनी है और उन्हें कितने टिकट आपकी पार्टी ने दिए हैं? अरुण जेटली ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया. मुसलमानों को जीतने योग्य या संसद में भेजने योग्य भारतीय जनता पार्टी नहीं मानती, यह इस चुनाव के टिकट वितरण ने बता दिया है. लेकिन, कांग्रेस पार्टी भी उन्हें जीतने योग्य नहीं मानती या उनसे जो वादे करती है, उन्हें पूरा न कर पाने की स्थिति में माफी भी नहीं मांगती, यह भी इस चुनाव ने बता दिया है. इस चुनाव में सबसे बड़ा अगर कोई लूजर होने वाला है, तो वह इस देश का मुसलमान है, जिसे यह समझ में नहीं आ रहा है कि वह चुनाव में क्या करे. इसीलिए मुसलमानों का एक तबका नरेंद्र मोदी की तरफ़ भी अपना समर्थन देने का मन बना रहा है और बाकी आपस में स्थानीय स्तर पर भटकते दिखाई दे रहे हैं.
नरेंद्र मोदी का आक्रामक प्रचार अभियान कांग्रेस के लिए मददगार भी साबित हो सकता है. नरेंद्र मोदी का प्रचार अभियान इतना ज़्यादा हुआ है, जो हमें याद दिलाता है कि नरसिम्हाराव का प्रचार अभियान भी कुछ इसी तरीके का था, जब वह 1996 का चुनाव लड़ रहे थे. उसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी का 2004 का चुनाव अभियान, जिसमें आडवाणी को प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग बताया गया था, वह भी कुछ इसी तरह का प्रचार अभियान था. कभी-कभी होता यह है कि जिस तरह का प्रचार होता है, वैसा भरोसा खुद पार्टी करने लगती है और पार्टी उसी पर अपनी हार की इबारत लिखने लगती है. कहानी हम सबने सुनी है, कछुआ और खरगोश की. यह कछुआ और खरगोश भारतीय जनता पार्टी के भीतर भी हो सकता है और भारतीय राजनीति में भी कि दौ़डता हुआ खरगोश यानी नरेंद्र मोदी सो जाएं और कछुआ राजनाथ सिंह बाजी मार ले जाएं या राजनीति में खरगोश नरेंद्र मोदी सो जाएं और कछुआ यानी कांग्रेस अपने सहयोगियों के साथ धीरे-धीरे बहुमत के नज़दीक पहुंच जाए. भारतीय राजनीति में कमाल का खेल है. 2014 का चुनाव, जिसमें चुनाव के बाद ही पता चलेगा कि ममता बनर्जी, जयललिता, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह एवं मायावती जैसे लोग चुनाव के बाद की राजनीति में ट्रम्प का रोल निभाएंगे या जोकर के रूप में स्वयं को सुशोभित करेंगे, लेकिन प्रचार में तो नरेंद्र मोदी बादशाह के रोल में नज़र आते हैं. इक्के के रूप में अगर कोई उन्हें मात दे सकता है, तो वह इस देश की जनता है और अगर जनता भी उन्हें बादशाह मान ले, तो इक्के का रोल ताश के खेल में पूर्णतया ख़त्म हो जाता है.
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महान अन्ना का महान अन्याय
ये सारे एनजीओज सरकार से भी पैसा लेते हैं और विदेशों से भी प्रचुर मात्रा में धन लेते हैं और चूंकि अन्ना हजारे एवं ममता बनर्जी के मिलने से प्रो-पीपुल इकोनॉमी के पक्ष में माहौल बनने की संभावना प्रबल हो गई थी, इसलिए यह साजिश हुई कि अगर अन्ना भाजपा, कांग्रेस और उनके पुराने सहयोगियों की बात मानकर ममता बनर्जी से अलग न हों, तो इन फॉरेन फंडेड एनजीओज को अन्ना को ममता से अलग करने के लिए भेजा जाए. इन एनजीओज के प्रतिनिधियों में दुर्भाग्यवश प्रो-मार्केट इकोनॉमी का विरोध करने वाले वामपंथी भी शामिल हो गए, क्योंकि उन्हें लगा कि इसी से ममता बनर्जी को बंगाल में परास्त किया जा सकता है. उनके लिए देश की जनता का हित गौण हो गया, ममता बनर्जी से लड़ाई प्रमुख हो गई. पिछले एक हफ्ते से ये एनजीओज अन्ना को घेर रहे थे और इनका मकसद अन्ना और ममता की प्रो-पीपुल इकोनॉमी को बर्बाद करना था. इसमें कॉरपोरेट सेक्टर भी शामिल हो गया, क्योंकि उसे डर था कि अन्ना और ममता का साथ उसे भी सार्वजनिक ज़िम्मेदारी निभाने के लिए मजबूर करेगा या दबाव डालेगा. इन लोगों ने अन्ना को संत से राजनीतिज्ञ की श्रेणी में खड़ा कर दिया और यह कहा कि भीड़ कम है, इसलिए नहीं जाइए. मैं श्री अन्ना हजारे द्वारा 14 मार्च को लगाए गए आरोप को इसलिए स्वीकार करता हूं, क्योंकि ये आरोप एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लगाए गए हैं, जिनका मैं हमेशा सम्मान करता रहा हूं. मैं हमेशा से मानता रहा हूं कि अन्ना हजारे इस देश के ग़रीब, वंचित, अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमानों एवं आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के प्रति संवेदनशील हैं और उनकी ज़िंदगी में बदलाव चाहते हैं. मैं उनका सम्मान उनकी सादगी या सफेद कपड़े व टोपी, मंदिर में रहने की वजह से नहीं करता हूं, बल्कि उनके आर्थिक एजेंडे की वजह से मैं उनका आदर करता हूं. उन्होंने जो 17 सूत्रीय आर्थिक एजेंडा सभी पार्टियों को भेजा, वह समावेशी विकास की कुंजी है. मैं यह मानता हूं कि देश की ज़्यादातर पार्टियां देश की अर्थव्यवस्था को बाज़ारवाद के चक्रव्यूह में फंसा देना चाहती हैं. कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी देश में नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था को स्थापित करना चाहती हैं. नव-उदारवाद अमीरों को अमीर बनाता है और ग़रीबों को और भी ग़रीब बनाता है. साथ ही यह देश को अराजकता, गृहयुद्ध और सांप्रदायिकता के कुचक्र में धकेल देने वाली नीति है. अन्ना का आर्थिक एजेंडा इस नव-उदारवादी व्यवस्था के विरोध में था, इसलिए मैंने अन्ना का साथ दिया. जब अन्ना जी के समर्थकों ने एक राजनीतिक दल बनाया और वह अपने गांव चले गए और चुप होकर बैठ गए, तो मुझे उसका अफ़सोस हुआ. जनरल वी के सिंह के साथ मैं अन्ना जी के पास गया और परिणामस्वरूप अन्ना जी ने पिछले 30 जनवरी, 2013 को एक विशाल रैली पटना के गांधी मैदान में की. अन्ना ने इस रैली का नाम जनतंत्र रैली रखा, जनतंत्र मोर्चा नामक एक संगठन का ऐलान किया और इंडिया अगेंस्ट करप्शन एवं उनके नाम से चल रहे सभी संगठनों से रिश्ता तोड़ लिया. पटना की इस रैली में अन्ना ने यह घोषणा की कि उनके सारे कार्यक्रम जनतंत्र मोर्चा के तहत किए जाएंगे. इस रैली के पीछे की कहानी यह है कि इस रैली की घोषणा अन्ना ने पहले ही कर दी थी. अन्ना के सारे साथियों ने उनका साथ छोड़ दिया. अन्ना को पता चल चुका था कि उनके पुराने साथी आंदोलन के नाम पर चंदा उठाते हैं और उसे चट कर जाते हैं. जब अन्ना के साथियों ने उन्हें छोड़ दिया, तब मैंने और जनरल वी के सिंह ने अन्ना के कहने पर पटना में रैली की ज़िम्मेदारी ली. इस रैली में हमने कई एनजीओ वालों को मंच पर आने की अनुमति दी. मजेदार बात यह है कि इन लोगों ने सरकार के ख़िलाफ़ एक भी शब्द नहीं बोला. एक ने तो भजन गाकर अपना भाषण ख़त्म कर दिया था. इन्होंने अन्ना का साथ देने का वादा भी किया था, लेकिन जब लगा कि अन्ना के इरादे सरकार के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ तीखा प्रहार करने वाले हैं, जनरल वी के सिंह कांग्रेस पर हमला करने वाले हैं, तो ये अन्ना से दूर हो गए. फिर किसी कार्यक्रम में इन्होंने साथ नहीं दिया. पटना की रैली के बाद अन्ना ने मुझे और जनरल वी के सिंह से पूरे देश में यात्रा करने की इच्छा जताई. हमने अन्ना की इच्छा को आदेश माना और जनतंत्र यात्रा का आयोजन किया. 30 मार्च, 2013 से अन्ना ने देश में जनतंत्र यात्रा शुरू की और अक्टूबर तक वह 28 हजार किलोमीटर से ज़्यादा छह प्रदेशों में घूमे और आठ सौ से ज़्यादा सभाएं कीं. उनकी इन सारी सभाओं का आयोजन जनतंत्र मोर्चा ने किया. अन्ना जी ने देश की राजनीति में हस्तक्षेप का मन बनाया और अपने दस्तखत से सारे राजनीतिक दलों को एक पत्र भेजा, जिसमें सत्रह सूत्रीय कार्यक्रम के बारे में उनकी राय मांगी. इस पत्र को लिखने के बाद अन्ना ने अपनी सभाओं में जगह-जगह यह इशारा किया कि वह ऐसे उम्मीदवारों का समर्थन करेंगे, जो साफ़ छवि वाले होंगे और निर्दलीय होंगे. अफ़सोस की बात यह है कि किसी एक भी उम्मीदवार ने उनसे संपर्क नहीं किया. दिसंबर में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के दल ने उनके पत्र का जवाब दिया, जिसमें सत्रह सूत्रीय कार्यक्रम को पूर्णत: स्वीकार किया गया. अन्ना ने उस पत्र को अपनी दराज में छुपाकर रख लिया, प्रेस को लीक नहीं किया. 13 फरवरी को मुकुल राय श्री अन्ना हजारे से मिलने गए और उन्हें विश्वास दिलाया कि ममता बनर्जी उनके आर्थिक कार्यक्रम का समर्थन करती हैं. तब वहां अन्ना हजारे ने मीडिया से कहा कि वह ममता बनर्जी के उम्मीदवारों का समर्थन करेंगे और उनके उम्मीदवार ज़्यादा से ज़्यादा जीतें, इसके लिए प्रयास करेंगे और ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री बनाएंगे. इसी मीटिंग में अन्ना हजारे और मुकुल राय के बीच तय हुआ कि दिल्ली में 19 फरवरी को दोनों प्रेस कांफ्रेंस करेंगे और 18 फरवरी की रात दोनों की पहली मुलाकात होगी. अन्ना हजारे ने ममता बनर्जी की भूरि-भूरि प्रशंसा की. 18 तारीख को अन्ना हजारे दिल्ली आए और ममता बनर्जी से उनके घर पर मिले, खाना खाया और लंबी बातचीत की. इसके बाद 19 फरवरी को दोनों ने एक साथ प्रेस कांफ्रेंस की. इस प्रेस कांफ्रेंस में अन्ना हजारे ने फिर दोहराया कि वह ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं और उनके लिए सारे देश में चुनाव प्रचार करेंगे. दिल्ली की रैली अन्ना हजारे के समर्थकों द्वारा आयोजित की गई थी और इसका नाम जनतंत्र रैली रखा गया था. अन्ना हजारे ने स्वयं रैली के पोस्टर देखे थे और उन्हें स्वीकृत किया था. इससे पहले अन्ना हजारे ने मुंबई में एक घंटे की एड फिल्म की शूटिंग की, जो बताता है कि अन्ना यह एडवर्टिजमेंट बनवाने के लिए कितने उत्सुक थे. दरअसल, अन्ना यह चाहते थे कि कैसे तृणमूल सत्ता के नज़दीक पहुंचे और सत्रह सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करे. 12 मार्च की रैली प्रस्तावित हुई और इसे अन्ना के समर्थकों ने आयोजित किया. इन समर्थकों में किसान नेता, छात्रनेता एवं अन्ना के पुराने वालंटियर्स शामिल थे. इस रैली के लिए तृणमूल कांग्रेस ने बहुत साधारण आर्थिक सहायता भी दी. रैली से तीन दिन पहले दिल्ली में भारी बारिश हुई और रैली के दिन सुबह 5 बजे तक पानी बरसा और दिल्ली के आसपास ओले गिरे. बहुत सारे लोग, जो रैली में आना चाहते थे, वे फसल की बर्बादी की वजह से नहीं आ सके. दिल्ली के लोगों को लगा कि इतनी बारिश से रामलीला मैदान की व्यवस्था खराब हो गई होगी, इसलिए वे नहीं आए. उस दिन वर्किंग डे भी था. 2011 के अनशन के दौरान भी देखा गया था कि वर्किंग डे में लोग कम आते थे, जबकि शनिवार-रविवार को ज़्यादा लोग आते थे. एक और बड़ी वजह रही. इस दौरान दिल्ली में परीक्षाएं चल रही हैं, इस वजह से भी अन्ना को चाहने वाले लोग अपेक्षित संख्या में नहीं आ सके. रैली के दिन अन्ना की आंख में इंफेक्शन हो गया और उनकी आंख से लाल पानी निकलने लगा. ममता बनर्जी रैली में आईं, लेकिन अन्ना रैली में नहीं आए. जब उनसे कारण जानने की कोशिश की गई, तो उन्होंने ममता बनर्जी को संदेश भेजा कि उनकी तबियत खराब है, इसलिए वह रैली में नहीं आ रहे हैं. हालांकि, यह ख़बर बाहर आ चुकी थी कि अन्ना हजारे को रैली में आने से रोकने के लिए एनजीओज ने अन्ना की घेराबंदी कर ली है. 13 और 14 तारीख को इन एनजीओज की बैठक अन्ना हजारे के साथ हुई और इन्होंने अन्ना हजारे के साथ मिलकर एक राजनीतिक फ्रंट बनाने का फैसला किया. अफ़सोस की बात यह है कि एक भी एनजीओ अन्ना की जनतंत्र यात्रा में पिछले वर्ष की जनवरी से लेकर अब तक कहीं नहीं रहा, स़िर्फ एक व्यक्ति मध्य प्रदेश में साथ रहे और वह अन्ना को यह समझाते रहे कि आप अगर ममता का समर्थन करेंगे, तो वामपंथियों का बंगाल में सफाया हो जाएगा. दरअसल, अन्ना और ममता का साथ आना न स़िर्फ नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के लिए ख़तरा था, बल्कि जिस तरह से ममता ने अल्पसंख्यकों का विश्वास जीता है, वह उत्तर भारत के कई राज्यों में कई बड़े-बड़े राजनीतिक दलों की राजनीति के लिए पूर्ण विराम साबित हो सकता था. दिल्ली में ममता और अन्ना की जोड़ी आम आदमी पार्टी के लिए ख़तरा बन चुकी थी. अन्ना और ममता 2014 के आम चुनाव पर ही नहीं, बल्कि देश की राजनीति पर असर डालने वाले थे. इसलिए यह समझा जा सकता है कि अन्ना पर कई तरह का दबाव डाला गया होगा. अन्ना ने ममता से रिश्ता तोड़कर भारत में एक नई राजनीतिक पहल का गला घोंटा है, साथ ही अपने समर्थकों को निराश किया है. अन्ना ने मेरे ऊपर धोखाधड़ी का इल्जाम लगाया है. मैं अन्ना का बहुत आदर करता हूं. अब तक अन्ना के विचारों का सम्मान करते हुए मैंने उनके आंदोलन का समर्थन किया और साथ दिया है. मैंने अपना यह रोल कभी नहीं माना कि मैं अन्ना के लिए भीड़ इकट्ठा कराऊंगा. अन्ना के जिन समर्थकों ने रैली का आयोजन किया था, उनके पास किराए की भीड़ लाने के लिए पैसे नहीं थे. अगर अन्ना हजारे के नाम पर लोग नहीं आए और प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण लोग नहीं आए, तो इसमें धोखाधड़ी कहां हुई? अन्ना के नाम पर दस लोग आए या दस हजार लोग आए, वे अन्ना के समाज परिवर्तन और उनके सत्रह सूत्रीय कार्यक्रम के बारे में जानना चाहते थे. जो भी लोग आए, वे अन्ना के नाम पर आए और उन्हें बहुत निराशा हुई, क्योंकि वे अन्ना को सुनने आए थे. अन्ना सात्विक संत हैं, वह आसाराम बापू नहीं हैं कि शर्त रखें कि जब तक इतने लोग नहीं होंगे, तब तक हम बोलने नहीं जाएंगे. अन्ना समाज परिवर्तन का सपना देखते हैं. अन्ना रामलीला मैदान में जो बोलते, उन्हें सुनने आए लगभग दस हजार लोग तो सुनते ही, साथ ही देश-विदेश का मीडिया भी वहां मौजूद था. सारी दुनिया सत्रह सूत्रीय एजेंडे पर उनके विचार सुनती, लेकिन अन्ना को वहां न जाने देने का षड्यंत्र प्रो-मार्केट से जुड़े और सरकारी मंत्री से जुड़े एनजीओज के नेताओं ने सफल कर दिया. मैं पत्रकार हूं. मैं अन्ना के विचारों का समर्थन कर सकता हूं, साथ चलकर शरीर से समर्थन कर सकता हूं, बोलकर समर्थन कर सकता हूं, लेकिन मैं उनके लिए भीड़ एकत्र करने का औजार हूं, इसकी मैंने कल्पना नहीं की थी. अगर वह मुझसे कह देते कि वह पचास हजार लोगों से कम की सभा में नहीं आएंगे, तो फिर मैं उनसे न सभा में जाने को कहता और न सभा के आयोजकों की मदद करता. ममता बनर्जी ईमानदार और लोगों के हक़ों के लिए लड़ने वाली नेता हैं और अन्ना हजारे गांव को मुख्य शक्ति बनाने का सपना देखते हैं, इसीलिए इन दोनों के मिलन की भूमिका में मैंने थोड़ा-सा योगदान दिया. उस सभा में दरअसल राजनेता होने के नाते ममता बनर्जी को नहीं जाना चाहिए था, क्योंकि आठ से दस हजार की भीड़ थी और संत होने के नाते अन्ना हजारे को जाना चाहिए था. लेकिन, यह दुर्भाग्य है कि भूमिका बदल गई, ममता बनर्जी ने संत का काम किया और अन्ना हजारे ने राजनेता का काम किया. इसलिए, मैं विनम्रता से श्री अन्ना हजारे और अपने सभी मित्रों से जानना चाहता हूं कि अगर अन्ना को सुनने भीड़ नहीं आई, तो इसमें मैंने धोखाधड़ी क्या की? यह रैली जनतंत्र रैली थी और सत्रह सूत्रीय कार्यक्रम के ऊपर रैली थी. इस बहस का क्या मतलब है कि यह किसकी रैली थी? रैली में जनता थी और सत्रह सूत्रीय कार्यक्रम के बारे में अन्ना को बताना था. अन्ना ने कभी यह साफ़ नहीं किया था कि मैं तृणमूल कांग्रेस की रैली में नहीं जाऊंगा. अन्ना ने 14 तारीख को एनजीओज की प्रेस कांफ्रेंस में दो परस्पर विरोधी बातें कहीं. उन्होंने कहा कि मेरी तबीयत खराब नहीं थी और मैं वहां इसलिए नहीं गया कि वहां भीड़ नहीं थी. जबकि 12 तारीख को अन्ना ने आन रिकॉर्ड यह कहा था कि मेरी तबीयत खराब है. अब इन दोनों बयानों के बीच ही कहीं सच्चाई छिपी हुई है. अन्ना हजारे ने यह भी कहा कि मुझे रैली का सही समय नहीं बताया गया, पहले 11 बजे कहा गया और बाद में एक बजे. अब क्या दो घंटे के इस अंतराल को अपराध माना जाना चाहिए? इसमें मैंने कौन सी धोखाधड़ी की? 30 जनवरी, 2013 की रैली की तैयारी से लेकर 12 मार्च, 2014 की जनतंत्र रैली तक अन्ना हजारे के सारे कार्यक्रमों पर जितना पैसा खर्च हुआ, उसका चंदा नहीं किया गया. किसी से सार्वजनिक तौर पर पैसे नहीं मांगे गए. अन्ना हजारे की सात्विकता, सच्चाई, ईमानदारी में विश्वास रखने वाले लोगों के समूह ने अपनी गाढ़ी कमाई में से अंशदान देकर इन सारे कार्यक्रमों को चलाया. अन्ना हजारे ने किसी से न एक पैसा देने के लिए कहा और न कभी यह पूछा कि सारे कार्यक्रम किस तरह चल रहे हैं? अन्ना हजारे की प्रेस कांफ्रेंस में उनके साथ इस बार वे चेहरे थे, जो सरकारों से बड़ा फंड लेकर अपना एनजीओ चलाते हैं और विदेशों से पैसा लेने में उन्हें कोई शर्म नहीं आती. अन्ना हजारे अपने साथ के लोगों से कई बार कह चुके हैं कि राजनीति में विदेशी पैसा नहीं आना चाहिए, देश की राजनीति देश के पैसे से होनी चाहिए. उनका इशारा अपने एक पूर्व शिष्य की तरफ़ था. आज अन्ना हजारे के साथ एनजीओ के नाम पर विदेशी फंड लेकर, सरकारी पैसा लेकर काम करने वाले लोग नज़र आ रहे हैं, जो देश की राजनीति में हस्तक्षेप कर विधानसभा और लोकसभा में जाने के लिए एक राजनीतिक फ्रंट बनाने की बात कर रहे हैं. मैं अन्ना हजारे का सम्मान करता रहूंगा और उनकी देशसेवा के काम में जितनी मदद हो सकेगी, करता रहूंगा. अफ़सोस मुझे इस बात का है कि मैंने जितने तथ्य सामने रखे हैं, वे सब श्री अन्ना हजारे द्वारा दिए गए तथ्य हैं. अगर वे कुछ बातें भूल गए हों, तो इसे पढ़कर शायद कुछ याद करें और अपना रास्ता सुधार सकें. मैं यह श्री अन्ना हजारे के लिए लिख रहा हूं, ताकि वह अपनी स्मृति को ताजा कर सकें. अफ़सोस इस बात का है कि अन्ना हजारे ने जो भाषा इस्तेमाल की और मेरे ऊपर धोखाधड़ी का आरोप लगाया, वह पूर्णत: असत्य, अनर्गल है और एक संत की भाषा नहीं है. यहां मैं एक और महत्वपूर्ण बात साफ़ कर दूं कि अन्ना हजारे ने 12 तारीख के बाद न मुझे फोन किया, न बात की और न यह बताया कि आपके बारे में लोग ऐसा कह रहे हैं. जिन लोगों ने अन्ना हजारे के लिए संपूर्ण समर्पण के भाव से काम किया, आज वे खुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं और इसे महान अन्ना का महान अन्याय मान रहे हैं. ईश्वर से प्रार्थना है कि अन्ना हजारे को बीती बातें याद आ जाएं और अन्ना अपने क़दम विदेशी फंड से संचालित एनजीओज को मजबूत करने की जगह देश के ग़रीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों और वंचित तबके के लोगों को मजबूत करने के लिए उठाएं. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2014/03/mahaan-anna-ka-mahaan-anyay.html#sthash.hjEKxGNr.dpuf
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