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चुनाव से पहले ही राहुल हार गए
चुनाव से पहले ही राहुल हार गए |
लोकसभा चुनाव के नतीजे 16 मई को आने वाले हैं, लेकिन देश का राजनीतिक माहौल दीवार पर लिखी इबारत की तरह यह संकेत दे रहा है कि यूपीए सरकार की हार निश्चित है. कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव के बीच मैदान छोड़कर भाग रहे हैं. हार की वजह यूपीए सरकार के दौरान भ्रष्टाचार, महंगाई और घोटाले हैं. विकास के मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी की बातों पर लोगों को अब भरोसा नहीं रहा. राहुल गांधी खुद को एक नेता के रूप में साबित करने में विफल रहे हैं. राहुल गांधी की सबसे बड़ी चूक यह है कि वह युवाओं का भरोसा नहीं जीत सके. राहुल गांधी का नरेंद्र मोदी को सीधे चुनौती न देना कांग्रेस की सबसे बड़ी भूल है. नरेंद्र मोदी को वॉक-ओवर देकर कांग्रेस ने भाजपा विरोधियों को निराश किया, साथ ही इस वजह से मुसलमानों का वोट बंट गया. राहुल गांधी ने मोदी का सामना न करके खुद को एक हारा हुआ योद्धा साबित किया है.
कांग्रेस पार्टी का कैंपेन एक शर्मनाक स्थिति में है. राहुल गांधी लोगों की नज़र में चुनाव से पहले ही हार चुके हैं. उनके भाषणों से लोगों में कोई विश्वास नहीं जगता है. वह एक ही तरह की बात हर रैली में कहते हैं, इसलिए जब उनका भाषण टीवी पर दिखाया जाता है, तो लोग चैनल बदल लेते हैं. अगर नरेंद्र मोदी की रैली साथ में होती है, तो टीवी चैनल वाले ही राहुल की आवाज़ बंद कर देते हैं. राहुल की साख एक नेता की नहीं बन सकी. राहुल गांधी किसानों का दिल नहीं जीत सके. देश के मज़दूर और दलित भी उन्हें अपना नेता नहीं मानते हैं. मुसलमानों में भी वह अपना स्थान नहीं बना पाए हैं और देश के युवाओं के बीच वह एक मजाक बनकर रह गए हैं. यही वजह है कि राहुल गांधी की रैली में अब लोग नहीं आते हैं. कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि जब वह बोलने के लिए उठे, तो लोग रैलियां छोड़कर जाने लगे. राहुल गांधी न तो आम जनता को जीत सके और न कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं एवं समर्थकों का हौसला बढ़ा सके. कांग्रेस के कई नेता तो चुनाव से पहले ही कांग्रेस की ऐतिहासिक हार की भविष्यवाणी करने लगे हैं. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता रसातल में कैसे चली गई. चुनाव से पहले ही पार्टी के नेता एवं कार्यकर्ता हताश और निराश हो चुके हैं. ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने चुनाव से पहले ही हार मान ली है या यूं कहें कि कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी को वॉक-ओवर दे दिया है. सवाल यह है कि कांग्रेस पार्टी से आख़िर चूक कहां हुई, वह इस हालत में पहुंची कैसे?
पिछले 10-12 सालों से कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को एक यूथ आइकन यानी एक युवा नेता के रूप में पेश करने की कोशिश में लगी रही. हर दो साल पर राहुल गांधी के सक्रिय राजनीति में आने की मांग उठती रही. राहुल गांधी का प्रचार होता रहा. राहुल गांधी के सक्रिय राजनीति में आने का मामला ऐसा हुआ, जैसे पहले आप-पहले आप के चक्कर में ट्रेन छूट जाती है. राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी की आंखें तब खुलीं, जब ट्रेन छूट चुकी थी. आख़िरकार, पिछले साल जयपुर के कार्यक्रम में उन्हें कांग्रेस पार्टी का उपाध्यक्ष घोषित किया गया, लेकिन यहां भी उन्होंने यह कह दिया कि सत्ता जहर है. अब पता नहीं कि राहुल के उस भाषण को किसने लिखा था. राजनीतिक दल के लिए अगर सत्ता जहर है, तो उन्हें समाजसेवी संस्था बना देना चाहिए. अगर सत्ता जहर है, तो चुनाव नहीं लड़ना चाहिए. कहने का मतलब यह कि राहुल गांधी का अपना ईमेज मेकओवर और कैंपेन संशय से ग्रसित रहा. इस संशय का दूसरा उदाहरण राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार न बनाना है. कांग्रेस पार्टी यह समझ नहीं सकी कि देश की जनता मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्री से ऊब चुकी है. उसे एक सक्रिय और निर्णायक प्रधानमंत्री चाहिए. पिछले दस सालों में राहुल गांधी यह साबित नहीं कर सके हैं कि वह एक निर्णायक व्यक्तित्व हैं. यही वजह है कि लोगों की नज़रों में वह प्रधानमंत्री बनने की दावेदारी में नरेंद्र मोदी से काफी पीछे छूट गए. इतने पीछे कि कोई प्रचार अभियान उसकी पूर्ति नहीं कर सकता.
वैसे कांग्रेस पार्टी का प्रचार अभियान भी अजीब है. किसी भी पोस्टर और वीडियो में कांग्रेस पार्टी ने लोगों से यह अपील तक नहीं की है कि कांग्रेस को वोट दें या हाथ के निशान पर बटन दबाएं. कांग्रेस का प्रचार अभियान पूरी तरह से ग़ैर-राजनीतिक है. सवाल यह है कि कांग्रेस के वे अक्लमंद लोग कौन हैं, जिन्होंने ऐसे प्रचार की रूपरेखा तैयार की है. पहले जब सोनिया गांधी के हाथ में कमान थी, तो हर योजना पर चर्चा होती थी. भाषण में क्या होगा, नारे क्या होने चाहिए, वीडियो कैसा बनाना है, रैलियों का आयोजन कैसे होगा, उम्मीदवारों को कैसे चुना जाएगा, समाजसेवी संगठनों को कैसे इस्तेमाल करना है, मीडिया को कैसे मैनेज करना है, इन सब बातों पर चर्चा होती थी और फिर रणनीति बनती थी. सोनिया गांधी के आसपास राजनीतिक लोग थे, जो टीवी पर नज़र नहीं आते थे. वे जमीनी स्तर पर ़फैसले को लागू करने में माहिर थे. इसलिए हर रणनीति कामयाब होती थी. राहुल गांधी के पार्टी के केंद्र में आते ही कांग्रेस के कई अनुभवी नेता निर्णायक भूमिका से दूर चले गए. राहुल गांधी अपने कुछ ख़ास लोगों से घिरे हुए हैं. ये वही लोग हैं, जिनकी वजह से बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं दिल्ली के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी का विनाश हो गया. राहुल के ख़ास सलाहकारों में कनिष्क सिंह, मोहन सिंह, मोहन प्रकाश, मधुसूदन मिस्त्री, के जे राव एवं संजय झा जैसे लोग हैं. इनमें से किसी ने ज़मीनी स्तर की राजनीति नहीं की. ये विचारक हैं, टीवी पर बहस करते हैं और ज़मीनी स्तर पर पार्टी कार्यक्रम नहीं करा सकते. इन लोगों की न तो राजनीतिक सोच है और न इनके पास राजनीतिक अनुभव है.
यूपीए सरकार के मंत्री पिछलेदो-तीन सालों से सोनिया गांधी और राहुल गांधी को सब्जबाग दिखाते रहे, यह भरोसा दिलाते रहे कि सरकार की नीतियों की वजह से कांग्रेस चुनाव जीत जाएगी. जब मौक़ा आया, तो मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए. क्या कांग्रेस पार्टी में एक ऐसा गुट तैयार हो चुका है, जो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहता है?
ऐसे ही सलाहकारों ने चुनाव के दौरान प्रचार-प्रसार और प्रोपेगेंडा के तूफानी हमले की योजना बनाई. राहुल गांधी को योजना बताई गई, राहुल गांधी ने हां कर दी. पता चला कि यह तूफानी हमला कांग्रेस संगठन के लोग नहीं करेंगे, बल्कि इसके लिए विदेशी एजेंसियों को चुना गया. प्रचार का काम अमेरिकी कंपनी बरसन-मार्शेलर और जापानी कंपनी देन्तसू को दिया गया. इस काम के लिए कांग्रेस पार्टी ने 700 करोड़ रुपये दिए, ताकि होर्डिंग्स, पोस्टर्स, रेडियो, अख़बारों और टीवी चैनलों के जरिये प्रचार हो सके. इनका काम मनमोहन सरकार की उपलब्धियों का प्रचार और राहुल गांधी का इमेज-मेकओवर करना था, ताकि लोग कांग्रेस को भाजपा से बेहतर मानें और वोट दें. चुनाव आयोग के मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट लागू होने से पहले ही देश भर में प्रचार-प्रसार का काम शुरू हो गया. एक कांग्रेस नेता ने बताया कि इन एजेंसियों की पहली योजना मनमोहन सरकार के ख़िलाफ़ नकारात्मक प्रचार को निष्प्रभावी करना था और उसके बाद राहुल का सकारात्मक प्रचार करके उनकी छवि निखारना था. पहली योजना के तहत इन एजेंसियों ने मनरेगा, फूड सिक्योरिटी, डायरेक्ट कैश ट्रांसफर, यूआईडी एवं आरटीआई जैसे कई मुद्दों का प्रचार किया, लेकिन उस प्रचार को देखकर लोगों का रिएक्शन उल्टा हो गया. मनरेगा भ्रष्टाचार की वजह से सबसे बदनाम योजना बनकर रह गई है, किसी को कैश मिला नहीं, यूआईडी को लेकर भी संशय बना हुआ है. विपक्ष ने स़िर्फ इतना कहकर कि कांग्रेस पार्टी उन कामों का भी श्रेय लेना चाह रही है, जो अभी हुए ही नहीं हैं, प्रचार की हवा निकाल दी. इन्हीं कंपनियों के ज़रिये अंग्रेजी चैनल टाइम्स नाऊ के अर्नब गोस्वामी के साथ इंटरव्यू रखा गया. उस एक इंटरव्यू ने राहुल गांधी को जो नुक़सान पहुंचाया, उसकी भरपाई 700 करोड़ रुपये लेने वाली ये एजेंसियां अभी तक नहीं कर सकी हैं. इसके बाद इन कंपनियों द्वारा राहुल के इमेज मेकओवर की सारी योजना विफल हो गई. मोदी के सामने राहुल एक नौसिखिया ही बने रहे. कांग्रेस पार्टी ने राहुल की मार्केटिंग करने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह असफल हो गई. राहुल गांधी का यह कहना कि भाजपा मार्केटिंग करने में एक्सपर्ट है, इस बात की पुष्टि करता है कि जो 700 करोड़ रुपये उन्होंने दो विदेशी कंपनियों को दिए, वे बेकार साबित हुए. राहुल गांधी को यह बात समझ में नहीं आई कि अगर पार्टी के ही अनुभवी नेताओं को 700 करोड़ रुपये देकर प्रचार की ज़िम्मेदारी सौंपी गई होती, तो आज उनकी भी मोदी के टक्कर की मार्केटिंग हो गई होती.
आज वह मोदी को चुनौती देते नज़र आते. लेकिन, सवाल यह है कि आख़िर ऐसी क्या बात है कि राहुल गांधी की सारी मार्केटिंग और प्रचार योजना विफल हो गई.
यूपीए के 10 सालों को आज़ाद हिंदुस्तान के इतिहास के एक काले धब्बे के रूप में याद किया जाएगा. मनमोहन सरकार ने खुद को एक झूठी, भ्रष्ट, जनविरोधी और आज़ाद भारत की सबसे बदनाम सरकार के रूप में स्थापित किया. उसने संसद और सुप्रीम कोर्ट में झूठ बोलने का कीर्तिमान स्थापित किया. देश की जनता यह मानती है कि यूपीए सरकार आज़ाद भारत की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार है. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ऐतिहासिक महंगाई और बेरोज़गारी देखी गई. किसानों ने सबसे ज़्यादा आत्महत्याएं कीं. यूपीए सरकार के दौरान एक-एक करके कई सारे प्रजातांत्रिक संस्थानों की विश्वसनीयता ही नष्ट कर दी गई. मीडिया में पिछले तीन सालों से यूपीए सरकार स़िर्फ घोटालों और अकर्मण्यता के लिए चर्चा में रही. मनमोहन सिंह एक कमजोर प्रधानमंत्री साबित हुए और उनकी सरकार ़फैसला न लेने वाली सरकार के नाम से मशहूर हो गई. पहली बार कैबिनेट मंत्रियों को जेल जाना पड़ा. पहली बार किसी घोटाले में शक की सूई प्रधानमंत्री पर पड़ी. यह सब कम था, तो बाकी काम महंगाई और बेरोज़गारी ने कर दिया. लोग नाराज़ थे. दो साल पहले से ही कांग्रेस पार्टी को यह अंदाज़ा था कि 2014 आसान नहीं होने वाला है. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन में जिस तरह से लोगों ने हिस्सेदारी की, वह कांग्रेस के ख़िलाफ़ जनविरोध का प्रमाण था. कांग्रेस पार्टी के नेता सब देख रहे थे, सरकार देख रही थी, सबके सामने एक सबसे बड़ी चुनौती थी, राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की चुनौती. कांग्रेस गांधी परिवार की पार्टी है. यह सबको पता था कि 2014 का चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. इसके लिए यूपीए सरकार और कांग्रेस के मंत्रियों ने क्या कोई तैयारी कर रखी थी?
दो साल पहले सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी से बातचीत के दौरान कई जानकारियां मिलीं. पता चला कि कांग्रेस पार्टी का 2014 का चुनाव जीतने का फॉर्मूला क्या है. उन्होंने बताया कि सरकार का मुख्य लक्ष्य आधार कार्ड बनवाना है. इसके बाद डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीम लागू की जाएगी. कांग्रेस पार्टी के नेताओं का यह मानना था कि अगर लोगों के बैंक एकाउंट में सीधे पैसा जाने लगेगा, तो सारी नाराज़गी ख़त्म हो जाएगी. सरकार चुनाव जीतने के लिए फूड सिक्योरिटी बिल लेकर आएगी, जिसके तहत देश की बहुमत आबादी को मुफ्त में खाने का सामान मुहैय्या कराया जाएगा. उन्होंने बताया कि आधार कार्ड बनने और इन योजनाओं को लागू करने के बाद देश के सभी जनकल्याण कार्यक्रमों को डायरेक्ट कैश ट्रांसफर से जोड़ा जाएगा. सारी सब्सिडी ख़त्म कर दी जाएगी और उसके बदले वह पैसा सीधे लोगों के बैंक एकाउंट में डाल दिया जाएगा. उन्होंने यह भी बताया कि मीडिया चीखता-चिल्लाता रह जाएगा, एक्सपर्ट बोलते रह जाएंगे कि यह देश की आर्थिक व्यवस्था के लिए ख़तरनाक साबित होगा, लेकिन कांग्रेस पार्टी चुनाव जीत जाएगी. हालांकि, ये योजनाएं तो फूलप्रूफ थीं, इसमें कोई शक नहीं कि अगर सरकार इन योजनाओं पर अमल करती और इन्हें लागू कर देती, तो कांग्रेस की हालत आज कुछ और होती. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ. जो मंत्री इन योजनाओं को लागू करने के लिए ज़िम्मेदार थे, वे आज चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. उन्होंने चुनाव न लड़ने का ़फैसला किया है. इसलिए यह सवाल पूछना लाज़िमी है कि क्या यूपीए सरकार के इन मंत्रियों ने किसी साज़िश के तहत इन योजनाओं को लागू नहीं किया? कहीं ऐसा तो नहीं कि यूपीए सरकार के मंत्री पिछले दो-तीन सालों से सोनिया गांधी और राहुल गांधी को सब्जबाग दिखाते रहे, यह भरोसा दिलाते रहे कि कांग्रेस इन नीतियों की वजह से आसानी से चुनाव जीत जाएगी? और जब मौक़ा आया, तो मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए. कहीं ऐसा तो नहीं कि मनमोहन सिंह ने इस योजनाओं को अधर में लटका दिया, क्योंकि उन्हें मालूम हो गया कि प्रधानमंत्री के रूप में यह उनकी आख़िरी पारी है. इसके अलावा, क्या कांग्रेस पार्टी में एक ऐसा गुट तैयार हो चुका है, जो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहता है?
सरकार की नाकामी और उसके ख़िलाफ़ लोगों की नाराज़गी थी. ऐसे में राहुल गांधी के लिए जो रणनीति चाहिए थी, वह विदेशी कंपनियां नहीं बना सकीं. वहीं दूसरी तरफ़ राहुल गांधी से यह ग़लती हुई कि वह पिछले पांच सालों से संगठन मजबूत करना है, संगठन मजबूत करना है, की रट ही लगाते रह गए. नतीजा यह निकला कि वह न तो संगठन मजबूत कर सके और न ही चुनाव जीत सके. राहुल गांधी एवं उनकी टीम की देखरेख में जिन-जिन राज्यों में चुनाव हुए, वहां कांग्रेस को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. बिहार और उत्तर प्रदेश की हार ने राहुल की नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़ा कर दिया, लेकिन हाल में हुए विधानसभा चुनावों में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में मिली जबरदस्त हार ने यह साबित कर दिया कि राहुल गांधी में नेतृत्व क्षमता नहीं है. यही वजह है कि देश का युवा वर्ग यह मानता है कि राहुल गांधी एक असफल व्यक्ति हैं, जो अपने परिवार के साये में राजनीति के इस मुकाम तक पहुंचे हैं. राहुल गांधी 43 साल के हो चुके हैं. युवा भी नहीं रहे, लेकिन राहुल गांधी के पास अपनी योग्यता और दर्शन को साबित करने के लिए कोई सुबूत नहीं है. लोगों को बताने के लिए राहुल के पास उनकी सफलता की कोई कहानी नहीं है. इतने सालों तक लोकसभा में रहने के बावजूद उनका एक भी भाषण ऐसा नहीं है, जिसे लोग याद कर सकें. हां, कभी-कभी जब उनकी जुबान फिसलती है, तो वह वीडियो सोशल मीडिया और इंटरनेट पर काफी पॉपुलर हो जाता है. वैसे कांग्रेस पार्टी के नेताओं और राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी की वैवाहिक स्थिति पर राजनीति करके यह संकेत दे दिया है कि कांग्रेस चुनाव से पहले ही हार चुकी है.
Wednesday 30 April 2014
Tuesday 29 April 2014
Saturday 26 April 2014
बीजेपी का अंतर्विरोध
मान लेना चाहिए कि नरेंद्र मोदी देश के अगले प्रधानमंत्री बनेंगे. जिस तरह उनकी सभाओं में भीड़ उमड़ रही है और जिस तरह का उनका प्रचार चल रहा है, वह दर्शाता है कि सारा देश उनके साथ है. बस, थोड़ी-सी कसर सर्वे रिपोर्ट्स बता रही हैं. भारतीय जनता पार्टी को अकेले 170 से 180 सीटें और सहयोगियों के साथ एनडीए की कुल सीटें 220 से 230. कोई भी सर्वे 230 से आगे नरेंद्र मोदी के एनडीए को नहीं ले जा पा रहा है. दरअसल, यह एनडीए भाजपा का नहीं है, यह एनडीए नरेंद्र मोदी का है और एनडीए की सीटों की संख्या बढ़ती नहीं दिखाई दे रही है. जो दल एनडीए के साथ जुड़े हैं, उनके पास शिवसेना और अकाली दल को छोड़ दें, तो एक या दो सीटें भी शायद ही उन्हें मिल पाएं. अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं और मोदी प्रधानमंत्री नहीं बनते हैं, तो देश क्या दृश्य देखेगा, इस पर बात करनी चाहिए. सबसे पहला सवाल कि यह चुनाव भारतीय जनता पार्टी नहीं लड़ रही है.
सबसे पहले, यह चुनाव भारतीय जनता पार्टी नहीं लड़ रही है, नरेंद्र मोदी लड़ रहे हैं. इस चुनाव की एक बड़ी विशेषता है कि देश में दो व्यक्तित्व सामने दिखाई दे रहे हैं. नरेंद्र मोदी ने भाजपा की साख शून्य कर दी है और देश के लोगों को यह बता दिया है कि अगर भाजपा चुनाव लड़ती, तो उसकी सीटें 100 से 125 तक होंती. नरेंद्र मोदी चुनाव लड़ रहे हैं, तो भारतीय जनता पार्टी की सीटें 170 से 180 तक जा सकती हैं. अब तक भाजपा के पास सबसे ज़्यादा सीटें 182 रही हैं. यह अफ़सोस की बात है कि नरेंद्र मोदी सब कुछ करने के बाद यह विश्वास नहीं दिला पा रहे हैं कि अकेली भारतीय जनता पार्टी 182 की संख्या पार कर पाएगी या नहीं. हम अगर इस बात पर विश्वास करें कि भाजपा 200 सीटें ले आती है और उसके सहयोगी 30 या 35 सीटें ले आते हैं, तो भी उसके कुल साथियों की संख्या 235 या 240 से आगे नहीं होती है. बची हुई 40 सीटें भाजपा के लिए प्राप्त करना बहुत बड़ी टेढ़ी खीर नहीं है, लेकिन टेढ़ी खीर ज़रूर है, क्योंकि वहां पर नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर अभी थोड़ा संशय पैदा हो सकता है.
पहला तथ्य, भारतीय जनता पार्टी की जगह नरेंद्र मोदी नामक शख्स, जो अपने आप में एक बड़ी पार्टी बन गया है, चुनाव लड़ रहा है और यह सारा काम नरेंद्र मोदी के प्रचारतंत्र ने किया है. नरेंद्र मोदी का प्रचार तंत्र अबकी बार भाजपा सरकार का नारा नहीं दे रहा, बल्कि अबकी बार मोदी सरकार, इसका नारा दे रहा है. इसका मतलब है कि अगर भारतीय जनता पार्टी में सीटों की किसी भी कमी को लेकर यह चर्चा चलती है कि नरेंद्र मोदी की जगह कोई दूसरा प्रधानमंत्री बन जाए, जो मौजूदा एनडीए के साथियों के अलावा अनिवार्य सहयोगियों की शर्त के मुताबिक हो, तो किसी दूसरे का नाम भारतीय जनता पार्टी स्वीकार नहीं करेगी.
संघ के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत ने यह बात भाजपा के सभी नेताओं को बता दी है कि अगर बहुमत एनडीए का नहीं आता है, तो वह बहुमत लाने के लिए नरेंद्र मोदी की जगह किसी दूसरे को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं स्वीकार करेंगे. उन्होंने यह साफ़ कर दिया है कि उस स्थिति में भारतीय जनता पार्टी विपक्ष में बैठना पसंद करेगी, लेकिन नरेंद्र मोदी को बदलने के बारे में नहीं सोचेगी. दरअसल, इसके पीछे संघ की एक पुरानी मान्यता है, जिसके बारे में हम लगातार लिखते रहे हैं. संघ यह मानता है कि भारतीय जनता पार्टी को लालकृष्ण आडवाणी, यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा, मुरली मनोहर जोशी जैसों से मुक्त होना होगा और एक नई भाजपा गढ़नी होगी. पहले उसने इसके लिए बीस साला कार्यक्रम बनाया था, जिसमें उसका मानना था कि इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी अगर हार जाती है, तो इन सारे लोगों को नेतृत्व की कतार से बाहर धकेल दिया जा सकता है. अब उसकी दूसरी रणनीति है कि नरेंद्र मोदी को सामने रखकर इन बाकी लोगों को भारतीय जनता पार्टी से अलग करके नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक नया नेतृत्व वर्ग पैदा किया जा सकता है, जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खालिस सिद्धांतों में भरोसा करता हो. संघ के इस ़फैसले के पीछे यह सत्य छिपा हुआ है कि अगर नरेंद्र मोदी की जगह किसी दूसरे को स्वीकार्यता के सिद्धांत पर चुनाव के बाद सरकार बनाने के लिए लाया गया, तो पार्टी टूट जाएगी और पार्टी का बड़ा वर्ग, चुने हुए सांसदों का बड़ा वर्ग नरेंद्र मोदी के साथ चला जाएगा, क्योंकि भारत के चुनाव के इतिहास में पहली बार भारतीय जनता पार्टी ऐसे चुनाव लड़ रही है, मानों उसे ईश्वरीय संकेत मिल गया हो कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे.
नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने की एक बुनियादी शर्त है कि भारतीय जनता पार्टी अकेले 215 सीटों के आसपास जीते और उसके सहयोगी कम-से-कम 30-35 सीटें जीतें, तब बचे हुए निर्दलीय या छोटी पार्टियां, जो 15, 20, 30 सीटें लाती हैं, उसका समर्थन करें, तब भी उसे सामान्य बहुमत ही मिलता है. यहां यह ध्यान देना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी या नरेंद्र मोदी ने कभी भी यह अभियान ही नहीं चलाया कि उन्हें दो तिहाई सीटें मिलेंगी. इस अभियान के न चलाने के पीछे मुझे एक आत्मविश्वास की कमी दिखाई देती है, जो यह कहता है कि भारतीय जनता पार्टी को 272 सीटें सहयोगियों के साथ लाने में भी शंका है. इसीलिए उन्होंने सामान्य बहुमत का आंकड़ा 272 का नारा दिया है. अब 272 से एक ज़्यादा पर सरकार बनती है, तो 272 से 100 ज़्यादा पर भी सरकार बनती है. लेकिन, भारतीय जनता पार्टी इस नारे का इस्तेमाल नहीं कर पाई. शायद अपनी उसी संगठन और आत्मविश्वास की कमी की वजह से वह यह दावा नहीं कर सकती कि उसे दो तिहाई बहुमत इस बार मिलेगा ही मिलेगा. जब यह दावा नहीं है, तो कैसी मोदी की लहर है, यह सवाल दिमाग में घुमड़ता है. यह सवाल नीतीश कुमार की तरह का सवाल नहीं है, न यह सवाल केजरीवाल की तरह का सवाल है. यह सवाल एक खालिस भारतीय राजनीति की स्थितियों के भीतर से उपजा हुआ सवाल है.
नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे, तो देश में विकास होगा, यह विकास अच्छा ही होना चाहिए. गुजरात में जिन लोगों को विकास नहीं चाहिए, उन्हें विकास के दायरे से बाहर छोड़ दिया गया है. इसकी बात देश के सामने न मीडिया लेकर आया है और न अन्य लोग, लेकिन मैं इसे इस तरह से देखता हूं कि देश का विकास भी गुजरात के विकास की तरह होगा. जब हम नरेंद्र मोदी के साथियों से मिलते हैं, तो उनका यह कहना है कि नरेंद्र मोदी 6 महीने के भीतर कुछ इस तरह की घोषणा करेंगे, जिससे देश का मुस्लिम समाज, जो आज उनके साथ नहीं जाना चाहता या एक बड़ा वर्ग, जो नरेंद्र मोदी से पूर्वाग्रह रखता है या घृणा करता है, वे सारे लोग नरेंद्र मोदी के कायल हो जाएंगे और उनका साथ देने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाएंगे.
नरेंद्र मोदी के साथियों का यह कथन या उनका यह विश्वास इस देश के भविष्य के लिए अच्छा संकेत है, लेकिन अगर ऐसा नहीं हुआ, तो क्या होगा? अभी तक नरेंद्र मोदी, उनके स्पोक पर्सन अमित शाह या अरुण जेटली या रविशंकर प्रसाद, कोई यह नहीं कहता है कि वे हिंदुस्तान के दबे-कुचले, पिछड़े लोगों, जिनमें मुसलमानों की एक बड़ी संख्या है, के लिए कोई विशेष कार्यक्रम बनाएंगे. वे यह मानकर चल रहे हैं कि वे देश के ग़रीबों के लिए जो कार्यक्रम बनाएंगे, उसी में उनका भी हिस्सा होगा. इसका उदाहरण रविशंकर प्रसाद देते हैं कि गुजरात के गांवों में बिजली आती है, तो मुसलमानों को भी बिजली मिलती है और जब पीने के पानी का सवाल आता है, तो नर्मदा के पानी की वजह से जितना जलस्तर ऊपर उठा है, उससे मुसलमान भी पानी पीते हैं. यह बात सुनने में अच्छी लगती है, लेकिन इसे एक दूसरी तरीके से देखें. एक घर में एक स्वस्थ बच्चा है और एक मालन्यूट्रीशन से ग्रस्त है, तो क्या दोनों को एक ही तरह का खाना देंगे, एक ही तरह के रहन-सहन का स्तर देंगे? या किसी को टीबी हो गई है, उसकी बीमारी दूर करने के लिए क्या उसकी तरफ़ विशेष ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए? ये सवाल भारतीय जनता पार्टी के सामने प्रमुख नहीं हैं.
मोदी के प्रधानमंत्री न बनने के पीछे कुछ कारण हैं, जो महत्वपूर्ण हैं. पहला कारण पार्टी का अंतर्विरोध है. पार्टी के नेता यह मानते हैं कि पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह बहुत अच्छे रणनीतिकार हैं और उनमें और नरेंद्र मोदी में एक समझौता हो गया है कि इस बार प्रधानमंत्री राजनाथ सिंह बनेंगे, नरेंद्र मोदी गुजरात को संभालेंगे और अगली बार नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे, राजनाथ सिंह राजनीति से संन्यास ले लेंगे. यह शुद्ध अफवाह हो सकती है, लेकिन जिस तरह का स्वभाव राजनाथ सिंह का है और जिस तरह से वह स्थितियां पैदा करते हैं, उसके अनुसार भाजपा मित्रों का कहना है कि यह अफवाह सत्यता में भी बदल सकती है. लेकिन अंतर्विरोध स़िर्फ राजनाथ सिंह और नरेंद्र मोदी का नहीं, अंतर्विरोध पार्टी के उन सभी लोगों का है, जो सामूहिक नेतृत्व में विश्वास करते हैं. अभी तक भारतीय जनता पार्टी में 2009 तक अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और जोशी जी का सामूहिक नेतृत्व चला था. धीरे-धीरे इन तीन लोगों से बढ़कर नौ लोगों की संख्या हुई, जिनमें अरुण जेटली, सुषमा स्वारज, जसवंत सिंह, वेंकैया नायडू, अनंत कुमार जैसे लोग शामिल थे. इसके नीचे भी एक सीढ़ी तैयार हुई थी, जिसे हम तीसरे दर्जे का नेतृत्व कह सकते हैं, पर अब नरेंद्र मोदी के आने से ऊपर की सारी सीढ़ियां अप्रासंगिक हो गई हैं और नरेंद्र मोदी अकेले पहली, दूसरी, तीसरी कतार के नेता बन गए हैं. दूसरी कतार का भारतीय जनता पार्टी में अगर कोई नेता है, तो वह अमित शाह हैं. अमित शाह नरेंद्र मोदी के गृहमंत्री बनने वाले हैं. इसलिए मुझे यह लगता है कि भारतीय जनता पार्टी में जो पीढ़ी नेतृत्व की कतार से बाहर जा रही है, वह पीढ़ी अपना आख़िरी दांव आजमाएगी और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने में रोड़ा पैदा करेगी.
दूसरी चीज, अगर भारतीय जनता पार्टी के पास सहयोगियों के साथ 200 या 220 या 230 सीटें आती हैं, तो फिर भारतीय जनता पार्टी का भावी सहयोग कहां से आएगा? हालांकि सहयोग मिलने में कोई दिक्कत नहीं, कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए. उत्तर प्रदेश में जहां समाजवादी पार्टी रहेगी, वहां बहुजन समाजवादी पार्टी नहीं रहेगी. तमिलनाडु में जहां करुणानिधि रहेंगे, वहां जयललिता नहीं रहेंगी. आंध्र में जहां चंद्रबाबू रहेंगे, वहां जगन रेड्डी नहीं रहेंगे. बंगाल में जहां कम्युनिस्ट रहेंगे, वहां ममता नहीं रहेंगी. बिहार में जहां लालू रहेंगे, वहां नीतीश नहीं रहेंगे. हालांकि जिनके मैं नाम ले रहा हूं, इनमें किसे कितनी सीटें मिलेंगी, अभी नहीं कहा जा सकता, लेकिन आज की स्थिति में ये परस्पर बैरी दिखाई देते हैं. इस स्थिति में नरेंद्र मोदी को सहयोगी मिलना मुश्किल नहीं नज़र आता, लेकिन इन सबमें अगर मुस्लिम वोट कोई फैक्टर है, तो ममता बनर्जी के सामने एक बड़ा सवालिया निशान है कि वह नरेंद्र मोदी का कैसे समर्थन करेंगी या नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी का कैसे समर्थन करेंगे. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह नरेंद्र मोदी का कैसे समर्थन करेंगे, पर बची हुई सीटों को लेकर भी नरेंद्र मोदी सरकार बना सकते हैं और इन सारे अंतर्विरोधों पर विजय पा सकते हैं. इसमें कोई संशय मुझे दिखाई नहीं देता है.
नरेंद्र मोदी के पक्ष में 18 से 24 साल की उम्र के नौजवान हैं, वे हर जगह मोदी-मोदी चिल्ला रहे हैं. मोदी ने भी अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत दिल्ली के श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स से की और उनके उस भाषण से नौजवानों का उनके प्रति आकर्षण बढ़ा. हालांकि, यह आकर्षण राहुल गांधी की तरफ़ होना चाहिए, लेकिन राहुल गांधी अपने भाषण से नौजवानों के मन में कोई आशा नहीं जगा पा रहे हैं. हालांकि आशा नरेंद्र मोदी भी नहीं जगा पा रहे हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी ने एक चीज स्टैबलिश की है कि वह प्रशासनिक स्तर पर, व्यवस्था संचालन के स्तर पर जितनी गड़बड़ियां हुई हैं, उनको ठीक कर सकते हैं. इसीलिए हिंदुस्तान के गांव में मोदी-मोदी-मोदी और खासकर 18 से 24 साल के लड़के इस चुनाव को बिल्कुल वैसे ही ले रहे हैं, जैसे कॉलेज यूनियन का इलेक्शन होता है. यह नरेंद्र मोदी के लिए एक बड़ी आशा है. हालांकि, सरकार बनाने की स्थिति में शायद नरेंद्र मोदी की सहमति से राजनाथ सिंह ने यह ़फैसला किया कि जो भी दोषी पार्टी छोड़कर आता है, उसे भाजपा में शामिल कर लो. कांग्रेस से आए हुए, आरजेडी से आए हुए लोगों को उन्होंने रखा भी और कुछ लोगों को रखा और निकाला भी. यह स्थिति बताती है कि भाजपा अपने प्रचार अभियान को लेकर, उसके नतीजे को लेकर, बहुत निश्चित नहीं समझती, अन्यथा वह ऐसे किसी शख्स को अपनी पार्टी में नहीं लेती, जो उनकी पार्टी का नहीं है या कम से कम उस पार्टी का है, जो वैचारिक रूप या राजनीतिक रूप से उसकी प्रबल दुश्मन रही है और इनमें कम से कम दो पार्टियों के नाम तो लिए जा सकते हैं, पहला कांग्रेस का और दूसरा आरजेडी का.
नरेंद्र मोदी के सामने चुनौतियां हैं. भारतीय जनता पार्टी भी उनके लिए चुनौती है. संघ शायद अभी चुनौती नहीं है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी से बाहर जो पक्ष चुनाव लड़ रहे हैं, वे भी उनके लिए कहीं न कहीं चुनौती साबित होंगे. जिस तरह से अपने भविष्य के साथियों से संपर्क करना चाहिए, उसकी कोशिश अवश्य नरेंद्र मोदी ने शुरू कर दी होगी. एक चीज ने और शंकाएं पैदा की हैं कि इस बार चुनाव लड़ने के लिए भाजपा ने जितने अभिनेताओं को खड़ा किया है, उतने पहले कभी चुनाव में खड़े नहीं हुए थे. शायद इसके पीछे एक कारण अच्छे उम्मीदवारों का न होना भी हो सकता है, लेकिन दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि इस देश के लोग इतने बेवकूफ हैं कि वे किसी को भी वोट दे सकते हैं, जो उनके यहां कभी आया हो या न आया हो, उसने काम किया हो या न किया हो, उसमें समझदारी हो या न हो. लोग नहीं देखेंगे, चूंकि वह भारतीय जनता पार्टी या कांग्रेस का उम्मीदवार है, इसलिए उसे वोट दे देंगे. यह समझ नरेंद्र मोदी और कांग्रेस दोनों में है, लेकिन इस समझ ने हिंदुस्तान के लोगों की उस मानसिकता को ज़रूर उजागर किया है, जिसके बारे में कहा जाता है कि हिंदुस्तान के लोगों को चुनाव के समय आसानी से बेवकूफ या मूर्ख बनाया जा सकता है. अब यहां देश के लोगों को ़फैसला करना है कि क्या वे सचमुच मूर्ख बन रहे हैं या बनना चाहते हैं? अगर बनना चाहते हैं, तो उनकी कोई मदद नहीं कर सकता और अगर नहीं बनना चाहते, तो यह चुनाव भारतीय मतदाताओं के दिमाग का एक कड़ा परीक्षण भी साबित हो सकता है. नरेंद्र मोदी के पक्ष में सबसे बड़ी बात कांग्रेस पार्टी का ढुलमुलपन है. कांगे्रस पार्टी ने नरेंद्र मोदी का सामना करने का सांगठनिक तौर पर कोई प्रयास ही नहीं किया. कांग्रेस पार्टी के दो सर्वोच्च नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी नरेंद्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी के अंतर्विरोधों को न समझ पाए और न उनका फ़ायदा उठा पाए. देश में अच्छी योजनाएं कैसे भ्रष्टाचार बढ़ाने में सहायक होती हैं, इसका कांग्रेस पार्टी ने सबसे अच्छा उदाहरण देश के सामने रखा है. नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी के बीच की तुलना में लोग नरेंद्र मोदी को पसंद कर रहे हैं. उच्च वर्ग, जिनमें प्रमुख बैंकों के अधिकारी एवं आर्थिक जगत के बड़े लोग शामिल हैं, तो यह कह रहा है कि हमें एक हिटलर जैसा शख्स चाहिए, जो इस देश की अर्थव्यवस्था को सुधार सके और उनका अर्थव्यवस्था सुधारने से मतलब इस देश में बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था का पैर फैलाना है, ताकि उसके विरोध में कोई आवाज़ न उठ सके. इसके लिए वे नरेंद्र मोदी को सर्वथा उपयुक्त व्यक्ति समझते हैं. इसलिए उच्च मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग में नरेंद्र मोदी का नाम देश में भविष्य के सफल प्रशासक के रूप में लिया जा रहा है. राहुल गांधी को वे बच्चा मानते हैं और उनका मानना है कि यह देश तबाह हो जाएगा, अगर राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री पद पर आते हैं.
मैंने रविशंकर प्रसाद से पूछा कि आख़िर भाजपा कब अकेले सरकार बनाने की बात करेगी या वह सहयोगियों की शर्तों पर ही सरकार बनाने की योजना बनाती रहेगी? इसका जवाब रविशंकर प्रसाद ने घुमा-फिरा कर दिया. मैंने यह भी पूछा कि क्यों इन दिनों भारतीय जनता पार्टी की नहीं, मोदी सरकार की बात हो रही है, क्या मोदी भारतीय जनता पार्टी से बड़े हो गए हैं? इस सवाल के जवाब में रविशंकर चुप रहे. मेरा तीसरा सवाल था कि आज की समस्याएं क्या खुली नव-उदारवादी बाज़ार व्यवस्था की देन हैं? मौजूदा अर्थव्यवस्था की वजह से भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोज़गारी, आतंकवाद और सांप्रदायिकता में वृद्धि हुई है या इसकी जड़ में खराब राजनीतिक शैली ही है? इन सवालों पर भी साफ़ जवाब देने से रविशंकर बच गए. अर्थनीति के सवाल से अलग मैंने अरुण जेटली से पूछा कि क्या आपको पता है कि देश में मुसलमानों की संख्या कितनी है और उन्हें कितने टिकट आपकी पार्टी ने दिए हैं? अरुण जेटली ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया. मुसलमानों को जीतने योग्य या संसद में भेजने योग्य भारतीय जनता पार्टी नहीं मानती, यह इस चुनाव के टिकट वितरण ने बता दिया है. लेकिन, कांग्रेस पार्टी भी उन्हें जीतने योग्य नहीं मानती या उनसे जो वादे करती है, उन्हें पूरा न कर पाने की स्थिति में माफी भी नहीं मांगती, यह भी इस चुनाव ने बता दिया है. इस चुनाव में सबसे बड़ा अगर कोई लूजर होने वाला है, तो वह इस देश का मुसलमान है, जिसे यह समझ में नहीं आ रहा है कि वह चुनाव में क्या करे. इसीलिए मुसलमानों का एक तबका नरेंद्र मोदी की तरफ़ भी अपना समर्थन देने का मन बना रहा है और बाकी आपस में स्थानीय स्तर पर भटकते दिखाई दे रहे हैं.
नरेंद्र मोदी का आक्रामक प्रचार अभियान कांग्रेस के लिए मददगार भी साबित हो सकता है. नरेंद्र मोदी का प्रचार अभियान इतना ज़्यादा हुआ है, जो हमें याद दिलाता है कि नरसिम्हाराव का प्रचार अभियान भी कुछ इसी तरीके का था, जब वह 1996 का चुनाव लड़ रहे थे. उसी तरह अटल बिहारी वाजपेयी का 2004 का चुनाव अभियान, जिसमें आडवाणी को प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग बताया गया था, वह भी कुछ इसी तरह का प्रचार अभियान था. कभी-कभी होता यह है कि जिस तरह का प्रचार होता है, वैसा भरोसा खुद पार्टी करने लगती है और पार्टी उसी पर अपनी हार की इबारत लिखने लगती है. कहानी हम सबने सुनी है, कछुआ और खरगोश की. यह कछुआ और खरगोश भारतीय जनता पार्टी के भीतर भी हो सकता है और भारतीय राजनीति में भी कि दौ़डता हुआ खरगोश यानी नरेंद्र मोदी सो जाएं और कछुआ राजनाथ सिंह बाजी मार ले जाएं या राजनीति में खरगोश नरेंद्र मोदी सो जाएं और कछुआ यानी कांग्रेस अपने सहयोगियों के साथ धीरे-धीरे बहुमत के नज़दीक पहुंच जाए. भारतीय राजनीति में कमाल का खेल है. 2014 का चुनाव, जिसमें चुनाव के बाद ही पता चलेगा कि ममता बनर्जी, जयललिता, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, मुलायम सिंह एवं मायावती जैसे लोग चुनाव के बाद की राजनीति में ट्रम्प का रोल निभाएंगे या जोकर के रूप में स्वयं को सुशोभित करेंगे, लेकिन प्रचार में तो नरेंद्र मोदी बादशाह के रोल में नज़र आते हैं. इक्के के रूप में अगर कोई उन्हें मात दे सकता है, तो वह इस देश की जनता है और अगर जनता भी उन्हें बादशाह मान ले, तो इक्के का रोल ताश के खेल में पूर्णतया ख़त्म हो जाता है.
Friday 25 April 2014
Thursday 24 April 2014
Wednesday 23 April 2014
Monday 21 April 2014
Saturday 19 April 2014
Friday 18 April 2014
Thursday 17 April 2014
Wednesday 16 April 2014
Tuesday 15 April 2014
Saturday 12 April 2014
Friday 11 April 2014
Saturday 5 April 2014
महान अन्ना का महान अन्याय
ये सारे एनजीओज सरकार से भी पैसा लेते हैं और विदेशों से भी प्रचुर मात्रा में धन लेते हैं और चूंकि अन्ना हजारे एवं ममता बनर्जी के मिलने से प्रो-पीपुल इकोनॉमी के पक्ष में माहौल बनने की संभावना प्रबल हो गई थी, इसलिए यह साजिश हुई कि अगर अन्ना भाजपा, कांग्रेस और उनके पुराने सहयोगियों की बात मानकर ममता बनर्जी से अलग न हों, तो इन फॉरेन फंडेड एनजीओज को अन्ना को ममता से अलग करने के लिए भेजा जाए. इन एनजीओज के प्रतिनिधियों में दुर्भाग्यवश प्रो-मार्केट इकोनॉमी का विरोध करने वाले वामपंथी भी शामिल हो गए, क्योंकि उन्हें लगा कि इसी से ममता बनर्जी को बंगाल में परास्त किया जा सकता है. उनके लिए देश की जनता का हित गौण हो गया, ममता बनर्जी से लड़ाई प्रमुख हो गई. पिछले एक हफ्ते से ये एनजीओज अन्ना को घेर रहे थे और इनका मकसद अन्ना और ममता की प्रो-पीपुल इकोनॉमी को बर्बाद करना था. इसमें कॉरपोरेट सेक्टर भी शामिल हो गया, क्योंकि उसे डर था कि अन्ना और ममता का साथ उसे भी सार्वजनिक ज़िम्मेदारी निभाने के लिए मजबूर करेगा या दबाव डालेगा. इन लोगों ने अन्ना को संत से राजनीतिज्ञ की श्रेणी में खड़ा कर दिया और यह कहा कि भीड़ कम है, इसलिए नहीं जाइए. मैं श्री अन्ना हजारे द्वारा 14 मार्च को लगाए गए आरोप को इसलिए स्वीकार करता हूं, क्योंकि ये आरोप एक ऐसे व्यक्ति द्वारा लगाए गए हैं, जिनका मैं हमेशा सम्मान करता रहा हूं. मैं हमेशा से मानता रहा हूं कि अन्ना हजारे इस देश के ग़रीब, वंचित, अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमानों एवं आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के प्रति संवेदनशील हैं और उनकी ज़िंदगी में बदलाव चाहते हैं. मैं उनका सम्मान उनकी सादगी या सफेद कपड़े व टोपी, मंदिर में रहने की वजह से नहीं करता हूं, बल्कि उनके आर्थिक एजेंडे की वजह से मैं उनका आदर करता हूं. उन्होंने जो 17 सूत्रीय आर्थिक एजेंडा सभी पार्टियों को भेजा, वह समावेशी विकास की कुंजी है. मैं यह मानता हूं कि देश की ज़्यादातर पार्टियां देश की अर्थव्यवस्था को बाज़ारवाद के चक्रव्यूह में फंसा देना चाहती हैं. कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी देश में नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था को स्थापित करना चाहती हैं. नव-उदारवाद अमीरों को अमीर बनाता है और ग़रीबों को और भी ग़रीब बनाता है. साथ ही यह देश को अराजकता, गृहयुद्ध और सांप्रदायिकता के कुचक्र में धकेल देने वाली नीति है. अन्ना का आर्थिक एजेंडा इस नव-उदारवादी व्यवस्था के विरोध में था, इसलिए मैंने अन्ना का साथ दिया. जब अन्ना जी के समर्थकों ने एक राजनीतिक दल बनाया और वह अपने गांव चले गए और चुप होकर बैठ गए, तो मुझे उसका अफ़सोस हुआ. जनरल वी के सिंह के साथ मैं अन्ना जी के पास गया और परिणामस्वरूप अन्ना जी ने पिछले 30 जनवरी, 2013 को एक विशाल रैली पटना के गांधी मैदान में की. अन्ना ने इस रैली का नाम जनतंत्र रैली रखा, जनतंत्र मोर्चा नामक एक संगठन का ऐलान किया और इंडिया अगेंस्ट करप्शन एवं उनके नाम से चल रहे सभी संगठनों से रिश्ता तोड़ लिया. पटना की इस रैली में अन्ना ने यह घोषणा की कि उनके सारे कार्यक्रम जनतंत्र मोर्चा के तहत किए जाएंगे. इस रैली के पीछे की कहानी यह है कि इस रैली की घोषणा अन्ना ने पहले ही कर दी थी. अन्ना के सारे साथियों ने उनका साथ छोड़ दिया. अन्ना को पता चल चुका था कि उनके पुराने साथी आंदोलन के नाम पर चंदा उठाते हैं और उसे चट कर जाते हैं. जब अन्ना के साथियों ने उन्हें छोड़ दिया, तब मैंने और जनरल वी के सिंह ने अन्ना के कहने पर पटना में रैली की ज़िम्मेदारी ली. इस रैली में हमने कई एनजीओ वालों को मंच पर आने की अनुमति दी. मजेदार बात यह है कि इन लोगों ने सरकार के ख़िलाफ़ एक भी शब्द नहीं बोला. एक ने तो भजन गाकर अपना भाषण ख़त्म कर दिया था. इन्होंने अन्ना का साथ देने का वादा भी किया था, लेकिन जब लगा कि अन्ना के इरादे सरकार के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ तीखा प्रहार करने वाले हैं, जनरल वी के सिंह कांग्रेस पर हमला करने वाले हैं, तो ये अन्ना से दूर हो गए. फिर किसी कार्यक्रम में इन्होंने साथ नहीं दिया. पटना की रैली के बाद अन्ना ने मुझे और जनरल वी के सिंह से पूरे देश में यात्रा करने की इच्छा जताई. हमने अन्ना की इच्छा को आदेश माना और जनतंत्र यात्रा का आयोजन किया. 30 मार्च, 2013 से अन्ना ने देश में जनतंत्र यात्रा शुरू की और अक्टूबर तक वह 28 हजार किलोमीटर से ज़्यादा छह प्रदेशों में घूमे और आठ सौ से ज़्यादा सभाएं कीं. उनकी इन सारी सभाओं का आयोजन जनतंत्र मोर्चा ने किया. अन्ना जी ने देश की राजनीति में हस्तक्षेप का मन बनाया और अपने दस्तखत से सारे राजनीतिक दलों को एक पत्र भेजा, जिसमें सत्रह सूत्रीय कार्यक्रम के बारे में उनकी राय मांगी. इस पत्र को लिखने के बाद अन्ना ने अपनी सभाओं में जगह-जगह यह इशारा किया कि वह ऐसे उम्मीदवारों का समर्थन करेंगे, जो साफ़ छवि वाले होंगे और निर्दलीय होंगे. अफ़सोस की बात यह है कि किसी एक भी उम्मीदवार ने उनसे संपर्क नहीं किया. दिसंबर में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री के दल ने उनके पत्र का जवाब दिया, जिसमें सत्रह सूत्रीय कार्यक्रम को पूर्णत: स्वीकार किया गया. अन्ना ने उस पत्र को अपनी दराज में छुपाकर रख लिया, प्रेस को लीक नहीं किया. 13 फरवरी को मुकुल राय श्री अन्ना हजारे से मिलने गए और उन्हें विश्वास दिलाया कि ममता बनर्जी उनके आर्थिक कार्यक्रम का समर्थन करती हैं. तब वहां अन्ना हजारे ने मीडिया से कहा कि वह ममता बनर्जी के उम्मीदवारों का समर्थन करेंगे और उनके उम्मीदवार ज़्यादा से ज़्यादा जीतें, इसके लिए प्रयास करेंगे और ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री बनाएंगे. इसी मीटिंग में अन्ना हजारे और मुकुल राय के बीच तय हुआ कि दिल्ली में 19 फरवरी को दोनों प्रेस कांफ्रेंस करेंगे और 18 फरवरी की रात दोनों की पहली मुलाकात होगी. अन्ना हजारे ने ममता बनर्जी की भूरि-भूरि प्रशंसा की. 18 तारीख को अन्ना हजारे दिल्ली आए और ममता बनर्जी से उनके घर पर मिले, खाना खाया और लंबी बातचीत की. इसके बाद 19 फरवरी को दोनों ने एक साथ प्रेस कांफ्रेंस की. इस प्रेस कांफ्रेंस में अन्ना हजारे ने फिर दोहराया कि वह ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री बनाना चाहते हैं और उनके लिए सारे देश में चुनाव प्रचार करेंगे. दिल्ली की रैली अन्ना हजारे के समर्थकों द्वारा आयोजित की गई थी और इसका नाम जनतंत्र रैली रखा गया था. अन्ना हजारे ने स्वयं रैली के पोस्टर देखे थे और उन्हें स्वीकृत किया था. इससे पहले अन्ना हजारे ने मुंबई में एक घंटे की एड फिल्म की शूटिंग की, जो बताता है कि अन्ना यह एडवर्टिजमेंट बनवाने के लिए कितने उत्सुक थे. दरअसल, अन्ना यह चाहते थे कि कैसे तृणमूल सत्ता के नज़दीक पहुंचे और सत्रह सूत्रीय कार्यक्रम को लागू करे. 12 मार्च की रैली प्रस्तावित हुई और इसे अन्ना के समर्थकों ने आयोजित किया. इन समर्थकों में किसान नेता, छात्रनेता एवं अन्ना के पुराने वालंटियर्स शामिल थे. इस रैली के लिए तृणमूल कांग्रेस ने बहुत साधारण आर्थिक सहायता भी दी. रैली से तीन दिन पहले दिल्ली में भारी बारिश हुई और रैली के दिन सुबह 5 बजे तक पानी बरसा और दिल्ली के आसपास ओले गिरे. बहुत सारे लोग, जो रैली में आना चाहते थे, वे फसल की बर्बादी की वजह से नहीं आ सके. दिल्ली के लोगों को लगा कि इतनी बारिश से रामलीला मैदान की व्यवस्था खराब हो गई होगी, इसलिए वे नहीं आए. उस दिन वर्किंग डे भी था. 2011 के अनशन के दौरान भी देखा गया था कि वर्किंग डे में लोग कम आते थे, जबकि शनिवार-रविवार को ज़्यादा लोग आते थे. एक और बड़ी वजह रही. इस दौरान दिल्ली में परीक्षाएं चल रही हैं, इस वजह से भी अन्ना को चाहने वाले लोग अपेक्षित संख्या में नहीं आ सके. रैली के दिन अन्ना की आंख में इंफेक्शन हो गया और उनकी आंख से लाल पानी निकलने लगा. ममता बनर्जी रैली में आईं, लेकिन अन्ना रैली में नहीं आए. जब उनसे कारण जानने की कोशिश की गई, तो उन्होंने ममता बनर्जी को संदेश भेजा कि उनकी तबियत खराब है, इसलिए वह रैली में नहीं आ रहे हैं. हालांकि, यह ख़बर बाहर आ चुकी थी कि अन्ना हजारे को रैली में आने से रोकने के लिए एनजीओज ने अन्ना की घेराबंदी कर ली है. 13 और 14 तारीख को इन एनजीओज की बैठक अन्ना हजारे के साथ हुई और इन्होंने अन्ना हजारे के साथ मिलकर एक राजनीतिक फ्रंट बनाने का फैसला किया. अफ़सोस की बात यह है कि एक भी एनजीओ अन्ना की जनतंत्र यात्रा में पिछले वर्ष की जनवरी से लेकर अब तक कहीं नहीं रहा, स़िर्फ एक व्यक्ति मध्य प्रदेश में साथ रहे और वह अन्ना को यह समझाते रहे कि आप अगर ममता का समर्थन करेंगे, तो वामपंथियों का बंगाल में सफाया हो जाएगा. दरअसल, अन्ना और ममता का साथ आना न स़िर्फ नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के लिए ख़तरा था, बल्कि जिस तरह से ममता ने अल्पसंख्यकों का विश्वास जीता है, वह उत्तर भारत के कई राज्यों में कई बड़े-बड़े राजनीतिक दलों की राजनीति के लिए पूर्ण विराम साबित हो सकता था. दिल्ली में ममता और अन्ना की जोड़ी आम आदमी पार्टी के लिए ख़तरा बन चुकी थी. अन्ना और ममता 2014 के आम चुनाव पर ही नहीं, बल्कि देश की राजनीति पर असर डालने वाले थे. इसलिए यह समझा जा सकता है कि अन्ना पर कई तरह का दबाव डाला गया होगा. अन्ना ने ममता से रिश्ता तोड़कर भारत में एक नई राजनीतिक पहल का गला घोंटा है, साथ ही अपने समर्थकों को निराश किया है. अन्ना ने मेरे ऊपर धोखाधड़ी का इल्जाम लगाया है. मैं अन्ना का बहुत आदर करता हूं. अब तक अन्ना के विचारों का सम्मान करते हुए मैंने उनके आंदोलन का समर्थन किया और साथ दिया है. मैंने अपना यह रोल कभी नहीं माना कि मैं अन्ना के लिए भीड़ इकट्ठा कराऊंगा. अन्ना के जिन समर्थकों ने रैली का आयोजन किया था, उनके पास किराए की भीड़ लाने के लिए पैसे नहीं थे. अगर अन्ना हजारे के नाम पर लोग नहीं आए और प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण लोग नहीं आए, तो इसमें धोखाधड़ी कहां हुई? अन्ना के नाम पर दस लोग आए या दस हजार लोग आए, वे अन्ना के समाज परिवर्तन और उनके सत्रह सूत्रीय कार्यक्रम के बारे में जानना चाहते थे. जो भी लोग आए, वे अन्ना के नाम पर आए और उन्हें बहुत निराशा हुई, क्योंकि वे अन्ना को सुनने आए थे. अन्ना सात्विक संत हैं, वह आसाराम बापू नहीं हैं कि शर्त रखें कि जब तक इतने लोग नहीं होंगे, तब तक हम बोलने नहीं जाएंगे. अन्ना समाज परिवर्तन का सपना देखते हैं. अन्ना रामलीला मैदान में जो बोलते, उन्हें सुनने आए लगभग दस हजार लोग तो सुनते ही, साथ ही देश-विदेश का मीडिया भी वहां मौजूद था. सारी दुनिया सत्रह सूत्रीय एजेंडे पर उनके विचार सुनती, लेकिन अन्ना को वहां न जाने देने का षड्यंत्र प्रो-मार्केट से जुड़े और सरकारी मंत्री से जुड़े एनजीओज के नेताओं ने सफल कर दिया. मैं पत्रकार हूं. मैं अन्ना के विचारों का समर्थन कर सकता हूं, साथ चलकर शरीर से समर्थन कर सकता हूं, बोलकर समर्थन कर सकता हूं, लेकिन मैं उनके लिए भीड़ एकत्र करने का औजार हूं, इसकी मैंने कल्पना नहीं की थी. अगर वह मुझसे कह देते कि वह पचास हजार लोगों से कम की सभा में नहीं आएंगे, तो फिर मैं उनसे न सभा में जाने को कहता और न सभा के आयोजकों की मदद करता. ममता बनर्जी ईमानदार और लोगों के हक़ों के लिए लड़ने वाली नेता हैं और अन्ना हजारे गांव को मुख्य शक्ति बनाने का सपना देखते हैं, इसीलिए इन दोनों के मिलन की भूमिका में मैंने थोड़ा-सा योगदान दिया. उस सभा में दरअसल राजनेता होने के नाते ममता बनर्जी को नहीं जाना चाहिए था, क्योंकि आठ से दस हजार की भीड़ थी और संत होने के नाते अन्ना हजारे को जाना चाहिए था. लेकिन, यह दुर्भाग्य है कि भूमिका बदल गई, ममता बनर्जी ने संत का काम किया और अन्ना हजारे ने राजनेता का काम किया. इसलिए, मैं विनम्रता से श्री अन्ना हजारे और अपने सभी मित्रों से जानना चाहता हूं कि अगर अन्ना को सुनने भीड़ नहीं आई, तो इसमें मैंने धोखाधड़ी क्या की? यह रैली जनतंत्र रैली थी और सत्रह सूत्रीय कार्यक्रम के ऊपर रैली थी. इस बहस का क्या मतलब है कि यह किसकी रैली थी? रैली में जनता थी और सत्रह सूत्रीय कार्यक्रम के बारे में अन्ना को बताना था. अन्ना ने कभी यह साफ़ नहीं किया था कि मैं तृणमूल कांग्रेस की रैली में नहीं जाऊंगा. अन्ना ने 14 तारीख को एनजीओज की प्रेस कांफ्रेंस में दो परस्पर विरोधी बातें कहीं. उन्होंने कहा कि मेरी तबीयत खराब नहीं थी और मैं वहां इसलिए नहीं गया कि वहां भीड़ नहीं थी. जबकि 12 तारीख को अन्ना ने आन रिकॉर्ड यह कहा था कि मेरी तबीयत खराब है. अब इन दोनों बयानों के बीच ही कहीं सच्चाई छिपी हुई है. अन्ना हजारे ने यह भी कहा कि मुझे रैली का सही समय नहीं बताया गया, पहले 11 बजे कहा गया और बाद में एक बजे. अब क्या दो घंटे के इस अंतराल को अपराध माना जाना चाहिए? इसमें मैंने कौन सी धोखाधड़ी की? 30 जनवरी, 2013 की रैली की तैयारी से लेकर 12 मार्च, 2014 की जनतंत्र रैली तक अन्ना हजारे के सारे कार्यक्रमों पर जितना पैसा खर्च हुआ, उसका चंदा नहीं किया गया. किसी से सार्वजनिक तौर पर पैसे नहीं मांगे गए. अन्ना हजारे की सात्विकता, सच्चाई, ईमानदारी में विश्वास रखने वाले लोगों के समूह ने अपनी गाढ़ी कमाई में से अंशदान देकर इन सारे कार्यक्रमों को चलाया. अन्ना हजारे ने किसी से न एक पैसा देने के लिए कहा और न कभी यह पूछा कि सारे कार्यक्रम किस तरह चल रहे हैं? अन्ना हजारे की प्रेस कांफ्रेंस में उनके साथ इस बार वे चेहरे थे, जो सरकारों से बड़ा फंड लेकर अपना एनजीओ चलाते हैं और विदेशों से पैसा लेने में उन्हें कोई शर्म नहीं आती. अन्ना हजारे अपने साथ के लोगों से कई बार कह चुके हैं कि राजनीति में विदेशी पैसा नहीं आना चाहिए, देश की राजनीति देश के पैसे से होनी चाहिए. उनका इशारा अपने एक पूर्व शिष्य की तरफ़ था. आज अन्ना हजारे के साथ एनजीओ के नाम पर विदेशी फंड लेकर, सरकारी पैसा लेकर काम करने वाले लोग नज़र आ रहे हैं, जो देश की राजनीति में हस्तक्षेप कर विधानसभा और लोकसभा में जाने के लिए एक राजनीतिक फ्रंट बनाने की बात कर रहे हैं. मैं अन्ना हजारे का सम्मान करता रहूंगा और उनकी देशसेवा के काम में जितनी मदद हो सकेगी, करता रहूंगा. अफ़सोस मुझे इस बात का है कि मैंने जितने तथ्य सामने रखे हैं, वे सब श्री अन्ना हजारे द्वारा दिए गए तथ्य हैं. अगर वे कुछ बातें भूल गए हों, तो इसे पढ़कर शायद कुछ याद करें और अपना रास्ता सुधार सकें. मैं यह श्री अन्ना हजारे के लिए लिख रहा हूं, ताकि वह अपनी स्मृति को ताजा कर सकें. अफ़सोस इस बात का है कि अन्ना हजारे ने जो भाषा इस्तेमाल की और मेरे ऊपर धोखाधड़ी का आरोप लगाया, वह पूर्णत: असत्य, अनर्गल है और एक संत की भाषा नहीं है. यहां मैं एक और महत्वपूर्ण बात साफ़ कर दूं कि अन्ना हजारे ने 12 तारीख के बाद न मुझे फोन किया, न बात की और न यह बताया कि आपके बारे में लोग ऐसा कह रहे हैं. जिन लोगों ने अन्ना हजारे के लिए संपूर्ण समर्पण के भाव से काम किया, आज वे खुद को ठगा-सा महसूस कर रहे हैं और इसे महान अन्ना का महान अन्याय मान रहे हैं. ईश्वर से प्रार्थना है कि अन्ना हजारे को बीती बातें याद आ जाएं और अन्ना अपने क़दम विदेशी फंड से संचालित एनजीओज को मजबूत करने की जगह देश के ग़रीबों, दलितों, अल्पसंख्यकों और वंचित तबके के लोगों को मजबूत करने के लिए उठाएं. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2014/03/mahaan-anna-ka-mahaan-anyay.html#sthash.hjEKxGNr.dpuf
Wednesday 19 March 2014
अर्थनीति तय करेगी देश की राजनीति |
2 जी घोटाले में जब ए राजा पकड़े गए, तो कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता, यहां तक कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह दो साल तक कहते रहे कि कोई घोटाला नहीं हुआ है. कोयला घोटाले में जब मनमोहन सिंह का नाम आया, तो कांग्रेस पार्टी ने कहा कि यह नीतिगत फैसला है. मजेदार बात यह है कि विपक्षी पार्टियों ने भी इन मामलों को जोर-शोर से नहीं उठाया. यह तो अदालत है, जिसकी वजह से इन घोटालों के गुनहगारों को सजा मिल रही है. हकीकत यह है कि राजनीतिक दल लोगों को बरगलाने में लगे हैं. नेता सफेद झूठ बोल रहे हैं. मीडिया भ्रम फैला रहा है. विकल्प का नाटक किया जा रहा है. महंगाई, भ्रष्टाचार, भूख, बेरोज़गारी एवं किसानों की आत्महत्या का मूल कारण मनमोहन सिंह की नव-उदारवादी नीतियां हैं. सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री का बदल जाना विकल्प है? क्या एक पार्टी की सरकार हटाकर किसी दूसरी पार्टी को सत्ता में बैठा देना विकल्प है? सही मायने में विकल्प का मतलब होता है वैकल्पिक नीतियां. महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी एवं भूख आदि समस्याओं से निजात पाने के लिए नव-उदारवादी नीतियों को ख़त्म करना ज़रूरी है. इसलिए 2014 के चुनाव में नेताओं और पार्टियों को नहीं, देश की जनता को आर्थिक नीति पर फैसला करना होगा. नव-उदारवादी नीतियों को समाधान बताने वाली पार्टियों को सबक सिखाना होगा.
लोकसभा चुनाव की तैयारी हो चुकी है. कौन उम्मीदवार कहां से चुनाव लड़ेगा, भारतीय जनता पार्टी हो, कांग्रेस पार्टी हो, वामपंथी हों, क्षेत्रीय दल हों या फिर आम आदमी पार्टी, सबने जातीय समीकरण और हिंदू-मुस्लिम वोटों के जोड़-तोड़ को ध्यान में रखते हुए अपनी सूची तैयार कर ली है. कई उम्मीदवारों की घोषणा हो चुकी है और कई लोगों के नाम आने बाकी हैं. हर तरफ़ होड़ लगी हुई है. रैली, घोषणाएं, मीटिंग, पैसों का लेन-देन, पोस्टर, होर्डिंग, पर्चे एवं सोशल मीडिया, हर तरफ़ चुनाव का माहौल है. इस चुनाव में अरबों रुपये फूंक दिए जाएंगे, लेकिन चुनाव के इस कोलाहल में सबसे बड़ा सवाल अभी भी रहस्यमय तरीके से गुप्त है. यह सवाल लोगों की ज़िंदगी से जुड़ा है. यह सवाल ग़रीबों के शोषण एवं वंचितों के विकास से जुड़ा है. यह सवाल नौज़वानों के रोज़गार से जुड़ा है. देश के जल, जंगल, जमीन के भविष्य से जुड़ा है. यह सवाल देश के प्रजातंत्र के अस्तित्व से जुड़ा है. शर्मनाक बात यह है कि इस सबसे बड़े सवाल पर हर दल ने चुप्पी साध रखी है.
इस देश की सबसे बड़ी मुसीबत तो यह है कि राजनीतिक दलों और देश चलाने वाले नेताओं ने समस्या को ही समाधान समझ लिया है. जिन आर्थिक नीतियों की वजह से इस देश में ग़रीब और ज़्यादा ग़रीब होते जा रहे हैं और अमीर बेतहाशा अमीर, जिन नीतियों की वजह से देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट हो रही है, जिन नीतियों की वजह से विकास स़िर्फ आंकड़ों में नज़र आता है, जिन नीतियों की वजह से देश के नौज़वान बेरोज़गार घूम रहे हैं, जिन नीतियों की वजह से किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो गए, जिन नीतियों की वजह से मज़दूरों की हालत बद से बदतर होती जा रही है, उन्हीं नव-उदारवादी नीतियों को देश के अधिकांश दलों ने एकमात्र विकल्प मान लिया है. भारतीय जनता पार्टी हो या कांग्रेस या फिर नई-नई बनी आम आदमी पार्टी, इन सबकी आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है, क्योंकि ये सब एक स्वर में कहते हैं कि रा़ेजगार या नौकरी देना सरकार का काम नहीं है. सरकार का काम व्यापार करना नहीं होता है. यह काम उद्योग जगत का है. समझने वाली बात यह है कि ये लोग देश की अर्थव्यवस्था को बाज़ार के हाथों बंधक बनाने पर तुले हैं. बाज़ारवाद की व्यवस्था का हश्र दुनिया के कई देशों में देखा जा रहा है. यह तो भारत है, जहां के किसान अपनी मेहनत से इतना अनाज पैदा कर देते हैं कि देश में खाने-पीने की किल्लत नहीं है, वरना इन बीस सालों में भारत की हालत भूख से मर रहे अफ्रीकी देशों की तरह हो गई होती.
कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही पार्टियां ऐसी आर्थिक नीतियों की पैरवी करती हैं, जिनसे शहर और गांव के विकास में विषमता पैदा होती है. भारत में अभी तक इस विषमता के दुष्परिणामों को नज़रअंदाज किया गया है, लेकिन अगर अब इसे टाला गया, तो देश अराजकता की ओर बढ़ सकता है. वैसे भी आज़ादी के इतने सालों बाद अब वक्त आ गया है कि प्रजातंत्र को जमीनी स्तर पर ले जाया जाए. ग्रामीण भारत के सशक्तिकरण का वक्त आ गया है. गांवों को स्थानीय प्रशासन में स्वायत्ता देने की ज़रूरत है. इसकी शुरुआत पंचायत को ग्रामसभा के प्रति ज़िम्मेदार बनाने से हो सकती है. यह व्यवस्था वैसी हो, जिस तरह से केंद्र और राज्यों में मंत्रिमंडल लोकसभा और विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होता है. गांवों के सशक्तिकरण सबसे सशक्त क़दम साबित हो सकता है. इससे भारत में न स़िर्फ प्रजातंत्र को मजबूती मिलेगी, बल्कि सरकार का बोझ भी कम होगा.
राजनीतिक सशक्तिकरण के साथ-साथ गांवों से पलायन रोकना भी सरकार की ज़िम्मेदारी है. आज किसान को खेती करने से ज़्यादा फायदा नहीं हो रहा है, उसे उपज की उचित क़ीमत नहीं मिलती है, उसे नुकसान हो रहा है. किसान जमीन बेचकर शहरों में नौकरी करने को मजबूर है. किसानों की सुरक्षा के लिए सबसे पहले देश में उनकी उपजाऊ जमीनें छीनकर निजी कंपनियों को देने की नीतियों पर प्रतिबंध लगाना होगा, साथ ही कृषि का आधुनिकीकरण और उसे उद्योग से जोड़ना ज़रूरी है. किसानों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें वक्त पर पानी नहीं मिलता है. इससे निपटने के लिए नदियों एवं जलाशयों के निजीकरण पर रोक और जल संचय की योजनाएं लागू करके शहर के साथ-साथ गांवों में पीने एवं सिंचाई का पानी उपलब्ध कराना आवश्यक है. साथ ही गांव को इकाई मानकर कृषि आधारित उद्योगों की योजना लागू करना भी ज़रूरी है, ताकि गांवों में ही रोज़गार के अवसर मिल सकें. अगर देश के गांव खुशहाल हो गए, लोगों का पलायन रुक गया, तो देश की कई समस्याओं का एक ही झटके में हल हो सकता है. अफसोस इस बात का है कि गांवों को खुशहाल बनाने वाली नीतियों के बारे में राष्ट्रीय दलों के नेता झूठी दिलासा भी नहीं दे रहे हैं.
राजनीतिक दलों की मानसिकता में एक बहुत बड़ी कमी है. उन्हें लगता है कि सब्सिडी या सीधे पैसे देकर जनता को खुश किया जाना ही सबसे सही रास्ता है. राजनीतिक दल नीतियों के अभाव में एक रुपये किलो चावल, तो कभी टीवी सेट या कभी कर्ज माफी का खेल खेलते हैं. इस बार तो सीधे बैंक एकाउंट में पैसे जमा करने की नीति से लोगों को फुसलाने की कोशिश हुई है. अब इन राजनीतिक दलों को कौन समझाए कि इन पैसों का इस्तेमाल अगर अत्याधुनिक मूलभूत ढांचे को बनाने में किया गया होता, तो देश के लोग सरकार की मदद के बगैर खुद ही स्वावलंबी बन गए होते. लोक-लुभावन चुनावी नीतियों के बजाय अगर इन पैसों का इस्तेमाल स्वास्थ्य सेवाओं में किया गया होता, तो देश के हर गांव में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हो जातीं, लेकिन सरकार की यह प्राथमिकता नहीं रही. आज हालत यह है कि देश के कई जिला मुख्यालयों में सीटी स्कैन और एक्सरे करने तक की सुविधा उपलब्ध नहीं है. सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल व्यवस्था को सुधारने में होना चाहिए. जो पैसा मनरेगा जैसी योजनाओं में बर्बाद हो गया, अगर उससे हर गांव में सौर ऊर्जा के यूनिट लगा दिए गए होते, तो देश के लाखों गांव ऊर्जा के क्षेत्र में काफी हद तक स्वावलंबी हो गए होते और पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुंचता.
प्रजातंत्र में समय-समय पर चुनाव इसलिए होते हैं, ताकि जनता इस बात का ़फैसला कर सके कि सरकार किन नीतियों पर चले. राजनीतिक दलों के शासन का जनता अपने हिसाब से आकलन करती है. जो सरकारें जनता की समस्याओं का समाधान निकालने में सफल नहीं होतीं, उन्हें जनता खारिज कर देती है, सत्ता से बाहर कर देती है. मीडिया का रोल सच्चाई को सामने लाना होता है, ताकि पता चल सके कि सरकार ने असल में क्या-क्या काम किए हैं, लेकिन 2014 के चुनाव में मीडिया और राजनीतिक दल लोगों को बरगलाने का काम कर रहे हैं.
भारत यूरोप के देशों से काफी अलग है. भारत अफ्रीकी और अमेरिकी देशों से भी भिन्न है. यहां का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश भी भिन्न है, इसलिए आंख बंद करके दूसरे देशों की नीतियां एवं योजनाएं यहां लागू करना अच्छा ़फैसला नहीं है. इससे नुकसान होता है. मनमोहन सिंह की वजह से 1991 के बाद से भारत आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों की नीतियों पर अंधाधुंध चल रहा है. कुछ लोगों को यह लगता है कि कई क्षेत्रों में विकास हो रहा है. विकास का यही एकमात्र रास्ता है. ऐसा आकलन गलत है. देश की समस्याएं पहले से जटिल होती जा रही है. हिंदुस्तान आर्थिक एवं सामाजिक संकटों के चक्रव्यूह में फंसता जा रहा है. कुछ तो सामने नज़र आ रहे हैं, कुछ कैंसर की तरह अभी छिपे हैं. 1991 के बाद से नक्सलवादी आंदोलन मजबूत हुआ है. यह 40 जिलों से बढ़कर 250 जिलों तक पहुंच चुका है. देश में युवाओं की संख्या बढ़ रही है, साथ ही बेरोज़गारी बढ़ रही है. अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान देश की मुख्य धारा से तो पहले ही अलग-थलग थे, अब वे आर्थिक रूप से भी कमजोर हो रहे हैं. महिलाओं के ख़िलाफ़ अत्याचार बढ़ रहा है. हिंसा बढ़ रही है. सरकारी तंत्र विफल हो रहा है. राजनीतिक नेताओं की साख ख़त्म हो रही है. इसकी वजह यह है कि देश की जनता की समस्याएं विकराल रूप धारण कर रही हैं और देश चलाने वाले बौने साबित होते जा रहे हैं. न सोच, न विचारधारा, न नीति, न विश्वास और न दूरदर्शिता. हर सरकार एक ही नीति चला रही है. समस्याओं को ख़त्म करने की किसी नई सोच का सृजन नहीं हो रहा है. चेहरे बदलने से समस्याएं ख़त्म नहीं होतीं, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बदलने से कुछ भी नहीं बदलता है, इसलिए देश की जनता को 2014 के चुनाव में आर्थिक नीतियों के आधार पर ही ़फैसला लेना होगा. देश को अराजकता और गृहयुद्ध से बचाने का यही एकमात्र उपाय है.
लोकसभा चुनाव की तैयारी हो चुकी है. कौन उम्मीदवार कहां से चुनाव लड़ेगा, भारतीय जनता पार्टी हो, कांग्रेस पार्टी हो, वामपंथी हों, क्षेत्रीय दल हों या फिर आम आदमी पार्टी, सबने जातीय समीकरण और हिंदू-मुस्लिम वोटों के जोड़-तोड़ को ध्यान में रखते हुए अपनी सूची तैयार कर ली है. कई उम्मीदवारों की घोषणा हो चुकी है और कई लोगों के नाम आने बाकी हैं. हर तरफ़ होड़ लगी हुई है. रैली, घोषणाएं, मीटिंग, पैसों का लेन-देन, पोस्टर, होर्डिंग, पर्चे एवं सोशल मीडिया, हर तरफ़ चुनाव का माहौल है. इस चुनाव में अरबों रुपये फूंक दिए जाएंगे, लेकिन चुनाव के इस कोलाहल में सबसे बड़ा सवाल अभी भी रहस्यमय तरीके से गुप्त है. यह सवाल लोगों की ज़िंदगी से जुड़ा है. यह सवाल ग़रीबों के शोषण एवं वंचितों के विकास से जुड़ा है. यह सवाल नौज़वानों के रोज़गार से जुड़ा है. देश के जल, जंगल, जमीन के भविष्य से जुड़ा है. यह सवाल देश के प्रजातंत्र के अस्तित्व से जुड़ा है. शर्मनाक बात यह है कि इस सबसे बड़े सवाल पर हर दल ने चुप्पी साध रखी है.
इस देश की सबसे बड़ी मुसीबत तो यह है कि राजनीतिक दलों और देश चलाने वाले नेताओं ने समस्या को ही समाधान समझ लिया है. जिन आर्थिक नीतियों की वजह से इस देश में ग़रीब और ज़्यादा ग़रीब होते जा रहे हैं और अमीर बेतहाशा अमीर, जिन नीतियों की वजह से देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट हो रही है, जिन नीतियों की वजह से विकास स़िर्फ आंकड़ों में नज़र आता है, जिन नीतियों की वजह से देश के नौज़वान बेरोज़गार घूम रहे हैं, जिन नीतियों की वजह से किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो गए, जिन नीतियों की वजह से मज़दूरों की हालत बद से बदतर होती जा रही है, उन्हीं नव-उदारवादी नीतियों को देश के अधिकांश दलों ने एकमात्र विकल्प मान लिया है. भारतीय जनता पार्टी हो या कांग्रेस या फिर नई-नई बनी आम आदमी पार्टी, इन सबकी आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं है, क्योंकि ये सब एक स्वर में कहते हैं कि रा़ेजगार या नौकरी देना सरकार का काम नहीं है. सरकार का काम व्यापार करना नहीं होता है. यह काम उद्योग जगत का है. समझने वाली बात यह है कि ये लोग देश की अर्थव्यवस्था को बाज़ार के हाथों बंधक बनाने पर तुले हैं. बाज़ारवाद की व्यवस्था का हश्र दुनिया के कई देशों में देखा जा रहा है. यह तो भारत है, जहां के किसान अपनी मेहनत से इतना अनाज पैदा कर देते हैं कि देश में खाने-पीने की किल्लत नहीं है, वरना इन बीस सालों में भारत की हालत भूख से मर रहे अफ्रीकी देशों की तरह हो गई होती.
राजनीतिक सशक्तिकरण के साथ-साथ गांवों से पलायन रोकना भी सरकार की ज़िम्मेदारी है. आज किसान को खेती करने से ज़्यादा फायदा नहीं हो रहा है, उसे उपज की उचित क़ीमत नहीं मिलती है, उसे नुकसान हो रहा है. किसान जमीन बेचकर शहरों में नौकरी करने को मजबूर है.यूपीए सरकार ने घोर बाज़ारवादी व्यवस्था लागू करने की नीति पर दस साल गुजारे हैं. लोगों में त्राहि-त्राहि मची हुई है. मीडिया भी बाज़ारवादी व्यवस्था का हिस्सा बन चुका है, इसलिए वह असलियत सामने लाने में असमर्थ है. हकीकत यह है कि लोग बाज़ार और पूंजीवाद के इशारे पर नाचने वाली व्यवस्था से निजात पाना चाहते हैं, लेकिन देश के सामने कोई विकल्प नहीं है. भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी का भी तर्क अजीब है. नरेंद्र मोदी कहते हैं कि यूपीए इसलिए विफल हुई, क्योंकि वह बाज़ारवादी व्यवस्था को सही ढंग से लागू नहीं कर सकी. कहने का मतलब यह है कि नरेंद्र मोदी वादा कर रहे हैं कि जब वह आएंगे, तो बाज़ारवादी व्यवस्था को सही ढंग से लागू करेंगे. इसका मतलब साफ़ है कि वही महंगाई, वही भ्रष्टाचार, वही बाज़ारवाद का साम्राज्य फैलेगा. बाकी दलों का जिक्र करना भी बेमानी है, क्योंकि उनकी न तो कोई नीति है और न देश के प्रति कोई ज़िम्मेदारी. समझने वाली बात यह है कि जिस आर्थिक नीति की पैरवी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी कर रही हैं, वही नीति देश में महंगाई की मुख्य वजह है. सरकार हर महत्वपूर्ण वस्तुओं को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर कर रही है. जब सरकार का अधिकार ही नहीं रहा, तो महंगाई पर नियंत्रण कौन और कैसे करेगा? मनमोहन सिंह लगातार महंगाई पर रोक लगाने की बात कहते आए, लेकिन सरकार कभी भी इसे रोक नहीं सकी. इसकी वजह भी यही है कि जब सब कुछ बाज़ार के हवाले हो जाता है, तो स़िर्फ टीवी चैनलों की बहस में महंगाई पर लगाम लगाई जा सकती है, लेकिन असलियत यही है कि बाज़ार में क़ीमतें स़िर्फ ऊपर की ओर जाती हैं. अगर नीति ही जनविरोधी हो, तो यह फर्क नहीं पड़ता है कि उसे लागू करने वाला कौन है. राहुल हों या मोदी, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है. यही वजह है कि जब इन अहम मुद्दों को लेकर अन्ना हजारे ने सारी राजनीतिक पार्टियों को खत लिखा, तो किसी ने जवाब नहीं दिया.
भारत यूरोप के देशों से काफी अलग है. भारत अफ्रीकी और अमेरिकी देशों से भी भिन्न है. यहां का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश भी भिन्न है, इसलिए आंख बंद करके दूसरे देशों की नीतियां एवं योजनाएं यहां लागू करना अच्छा ़फैसला नहीं है. इससे नुकसान होता है.नव-उदारवादी नीतियां न स़िर्फ महंगाई को बेलगाम करती हैं, बल्कि वे भ्रष्टाचार की भी जननी हैं. यूपीए के 10 सालों में इतने घोटाले हुए कि इस चुनाव में भ्रष्टाचार मुद्दा बन गया है. इस दौरान अनगिनत घोटाले इसलिए हुए, क्योंकि इसमें सरकार, नेताओं एवं अधिकारियों ने कॉरपोरेट जगत के साथ मिलकर नीतिगत ़फैसले के जरिये प्राकृतिक संसाधनों की लूट की है. भ्रष्टाचार से निपटने के लिए प्राकृतिक संसाधनों को निजी कंपनियों के हवाले करने पर अविलंब रोक लगनी चाहिए, साथ ही विदेश में जमा कालेधन को राष्ट्रीय संपत्ति घोषित कर उसे वापस लाने की भी प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए. 1991 के बाद से जिस तरह भ्रष्टाचार ने पूरी सरकारी व्यवस्था को अपनी गिरफ्त में ले लिया है, उससे संवैधानिक संस्थानों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो गए. भ्रष्टाचार इसलिए भी मुद्दा बना, क्योंकि अन्ना हजारे ने 2011 से भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ एक देशव्यापी आंदोलन की शुरुआत की. पूरा देश तिरंगा लेकर और मैं अन्ना हूं की गांधी टोपी पहन कर सड़क पर उतर आया. लोगों ने अन्ना का साथ इसलिए दिया, क्योंकि यूपीए शासन में भ्रष्टाचार पहली बार पंचायत और गांवों के स्तर पर जा पहुंचा. अन्ना के आंदोलन और जनतंत्र यात्रा के जरिये जनजागरण ने असर दिखाया और आख़िरकार सरकार को लोकपाल क़ानून बनाना पड़ा. वैसे अभी कई क़ानून बनने बाकी हैं. देश की जनता की बहुत ज़्यादा मांगें नहीं हैं और भ्रष्टाचार पर काफी हद तक लगाम लगाई जा सकती है, अगर सरकारी कामकाज में पारदर्शिता, सिटीजन चार्टर बिल और व्हिसल ब्लोअर की सुरक्षा हेतु क़ानून पास किया जाए. साथ ही देश में चुनाव संबंधी सुधार लाने की आवश्यकता है, जैसे कि राइट टू रिजेक्ट और राइट टू रिकॉल. विदेश और देश की सुरक्षा के मामलों को छोड़कर सरकार के हर ़फैसले की फाइल को 2 साल के बाद सार्वजनिक कर देने से शीर्ष स्तर पर होने वाले भ्रष्टाचार का खात्मा हो सकता है. लेकिन समझने वाली बात यह है कि 2014 के बाद अगर बाज़ार की पैरवी करने वाली सरकार आ गई, तो न कभी पारदर्शिता आएगी और न ही भ्रष्टाचार को ख़त्म किया जा सकेगा.
कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही पार्टियां ऐसी आर्थिक नीतियों की पैरवी करती हैं, जिनसे शहर और गांव के विकास में विषमता पैदा होती है. भारत में अभी तक इस विषमता के दुष्परिणामों को नज़रअंदाज किया गया है, लेकिन अगर अब इसे टाला गया, तो देश अराजकता की ओर बढ़ सकता है. वैसे भी आज़ादी के इतने सालों बाद अब वक्त आ गया है कि प्रजातंत्र को जमीनी स्तर पर ले जाया जाए. ग्रामीण भारत के सशक्तिकरण का वक्त आ गया है. गांवों को स्थानीय प्रशासन में स्वायत्ता देने की ज़रूरत है. इसकी शुरुआत पंचायत को ग्रामसभा के प्रति ज़िम्मेदार बनाने से हो सकती है. यह व्यवस्था वैसी हो, जिस तरह से केंद्र और राज्यों में मंत्रिमंडल लोकसभा और विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होता है. गांवों के सशक्तिकरण सबसे सशक्त क़दम साबित हो सकता है. इससे भारत में न स़िर्फ प्रजातंत्र को मजबूती मिलेगी, बल्कि सरकार का बोझ भी कम होगा.
राजनीतिक सशक्तिकरण के साथ-साथ गांवों से पलायन रोकना भी सरकार की ज़िम्मेदारी है. आज किसान को खेती करने से ज़्यादा फायदा नहीं हो रहा है, उसे उपज की उचित क़ीमत नहीं मिलती है, उसे नुकसान हो रहा है. किसान जमीन बेचकर शहरों में नौकरी करने को मजबूर है. किसानों की सुरक्षा के लिए सबसे पहले देश में उनकी उपजाऊ जमीनें छीनकर निजी कंपनियों को देने की नीतियों पर प्रतिबंध लगाना होगा, साथ ही कृषि का आधुनिकीकरण और उसे उद्योग से जोड़ना ज़रूरी है. किसानों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि उन्हें वक्त पर पानी नहीं मिलता है. इससे निपटने के लिए नदियों एवं जलाशयों के निजीकरण पर रोक और जल संचय की योजनाएं लागू करके शहर के साथ-साथ गांवों में पीने एवं सिंचाई का पानी उपलब्ध कराना आवश्यक है. साथ ही गांव को इकाई मानकर कृषि आधारित उद्योगों की योजना लागू करना भी ज़रूरी है, ताकि गांवों में ही रोज़गार के अवसर मिल सकें. अगर देश के गांव खुशहाल हो गए, लोगों का पलायन रुक गया, तो देश की कई समस्याओं का एक ही झटके में हल हो सकता है. अफसोस इस बात का है कि गांवों को खुशहाल बनाने वाली नीतियों के बारे में राष्ट्रीय दलों के नेता झूठी दिलासा भी नहीं दे रहे हैं.
राजनीतिक दलों की मानसिकता में एक बहुत बड़ी कमी है. उन्हें लगता है कि सब्सिडी या सीधे पैसे देकर जनता को खुश किया जाना ही सबसे सही रास्ता है. राजनीतिक दल नीतियों के अभाव में एक रुपये किलो चावल, तो कभी टीवी सेट या कभी कर्ज माफी का खेल खेलते हैं. इस बार तो सीधे बैंक एकाउंट में पैसे जमा करने की नीति से लोगों को फुसलाने की कोशिश हुई है. अब इन राजनीतिक दलों को कौन समझाए कि इन पैसों का इस्तेमाल अगर अत्याधुनिक मूलभूत ढांचे को बनाने में किया गया होता, तो देश के लोग सरकार की मदद के बगैर खुद ही स्वावलंबी बन गए होते. लोक-लुभावन चुनावी नीतियों के बजाय अगर इन पैसों का इस्तेमाल स्वास्थ्य सेवाओं में किया गया होता, तो देश के हर गांव में स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हो जातीं, लेकिन सरकार की यह प्राथमिकता नहीं रही. आज हालत यह है कि देश के कई जिला मुख्यालयों में सीटी स्कैन और एक्सरे करने तक की सुविधा उपलब्ध नहीं है. सरकारी संसाधनों का इस्तेमाल व्यवस्था को सुधारने में होना चाहिए. जो पैसा मनरेगा जैसी योजनाओं में बर्बाद हो गया, अगर उससे हर गांव में सौर ऊर्जा के यूनिट लगा दिए गए होते, तो देश के लाखों गांव ऊर्जा के क्षेत्र में काफी हद तक स्वावलंबी हो गए होते और पर्यावरण को भी नुकसान नहीं पहुंचता.
राजनीतिक दलों की मानसिकता में एक बहुत बड़ी कमी है. उन्हें लगता है कि सब्सिडी या सीधे पैसे देकर जनता को खुश किया जाना ही सबसे सही रास्ता है. राजनीतिक दल नीतियों के अभाव में एक रुपये किलो चावल, तो कभी टीवी सेट या कभी कर्ज माफी का खेल खेलते हैं. इस बार तो सीधे बैंक एकाउंट में पैसे जमा करने की नीति से लोगों को फुसलाने की कोशिश हुई है. अब इन राजनीतिक दलों को कौन समझाए कि इन पैसों का इस्तेमाल अगर अत्याधुनिक मूलभूत ढांचे को बनाने में किया गया होता, तो देश के लोग सरकार की मदद के बगैर खुद ही स्वावलंबी बन गए होते.इन सबके अलावा, देश के दबे-कुचले वर्ग के लिए स्पेशल पैकेज बनाने की ज़रूरत है. देश में मुसलमानों की हालत दलितों से भी बदतर हो गई है. कांग्रेस पार्टी ने हर चुनाव से पहले मुसलमानों को बरगलाने के लिए नौकरी में आरक्षण का झांसा दिया और हर चुनाव के बाद उन्हें भूल गई. वैसे तो धर्म के नाम पर आरक्षण देना संवैधानिक तौर पर गलत है, लेकिन हर समुदाय के ग़रीबों एवं वंचितों की मदद करना सरकार का दायित्व है. बावजूद इसके, कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने अब तक इस मामले को ऐसा उलझा कर रखा है कि यह सांप्रदायिक रंग ले लेता है. स़िर्फ अल्पसंख्यकों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश में ऐसी शिक्षा नीति की ज़रूरत है, जो सीधे रोज़गार से जुड़ती हो. पढ़-लिखकर बेरोज़गार बनाने वाली शिक्षा नीति से देश का ज़्यादा फायदा नहीं हो पा रहा है.
प्रजातंत्र में समय-समय पर चुनाव इसलिए होते हैं, ताकि जनता इस बात का ़फैसला कर सके कि सरकार किन नीतियों पर चले. राजनीतिक दलों के शासन का जनता अपने हिसाब से आकलन करती है. जो सरकारें जनता की समस्याओं का समाधान निकालने में सफल नहीं होतीं, उन्हें जनता खारिज कर देती है, सत्ता से बाहर कर देती है. मीडिया का रोल सच्चाई को सामने लाना होता है, ताकि पता चल सके कि सरकार ने असल में क्या-क्या काम किए हैं, लेकिन 2014 के चुनाव में मीडिया और राजनीतिक दल लोगों को बरगलाने का काम कर रहे हैं.
भारत यूरोप के देशों से काफी अलग है. भारत अफ्रीकी और अमेरिकी देशों से भी भिन्न है. यहां का आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक परिवेश भी भिन्न है, इसलिए आंख बंद करके दूसरे देशों की नीतियां एवं योजनाएं यहां लागू करना अच्छा ़फैसला नहीं है. इससे नुकसान होता है. मनमोहन सिंह की वजह से 1991 के बाद से भारत आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक जैसे अंतरराष्ट्रीय संगठनों की नीतियों पर अंधाधुंध चल रहा है. कुछ लोगों को यह लगता है कि कई क्षेत्रों में विकास हो रहा है. विकास का यही एकमात्र रास्ता है. ऐसा आकलन गलत है. देश की समस्याएं पहले से जटिल होती जा रही है. हिंदुस्तान आर्थिक एवं सामाजिक संकटों के चक्रव्यूह में फंसता जा रहा है. कुछ तो सामने नज़र आ रहे हैं, कुछ कैंसर की तरह अभी छिपे हैं. 1991 के बाद से नक्सलवादी आंदोलन मजबूत हुआ है. यह 40 जिलों से बढ़कर 250 जिलों तक पहुंच चुका है. देश में युवाओं की संख्या बढ़ रही है, साथ ही बेरोज़गारी बढ़ रही है. अल्पसंख्यक, खासकर मुसलमान देश की मुख्य धारा से तो पहले ही अलग-थलग थे, अब वे आर्थिक रूप से भी कमजोर हो रहे हैं. महिलाओं के ख़िलाफ़ अत्याचार बढ़ रहा है. हिंसा बढ़ रही है. सरकारी तंत्र विफल हो रहा है. राजनीतिक नेताओं की साख ख़त्म हो रही है. इसकी वजह यह है कि देश की जनता की समस्याएं विकराल रूप धारण कर रही हैं और देश चलाने वाले बौने साबित होते जा रहे हैं. न सोच, न विचारधारा, न नीति, न विश्वास और न दूरदर्शिता. हर सरकार एक ही नीति चला रही है. समस्याओं को ख़त्म करने की किसी नई सोच का सृजन नहीं हो रहा है. चेहरे बदलने से समस्याएं ख़त्म नहीं होतीं, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री बदलने से कुछ भी नहीं बदलता है, इसलिए देश की जनता को 2014 के चुनाव में आर्थिक नीतियों के आधार पर ही ़फैसला लेना होगा. देश को अराजकता और गृहयुद्ध से बचाने का यही एकमात्र उपाय है.
Tuesday 4 February 2014
कोयले का दाग़ नहीं धुलेगा
मनमोहन सिंह को बचाने के लिए सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी. यह जरा हास्यास्पद है, लेकिन फिर भी जानना ज़रूरी है कि जब सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कड़ा रुख अपनाया, तो मनमोहन सिंह सरकार ने कहा कि फाइलें गायब हो गईं. अब पता नहीं कि फाइलें गायब हुई थीं या फिर गायब कर दी गई थीं. सुप्रीम कोर्ट के रवैये की वजह से कोयला मंत्री ने फाइलें ढूंढने के लिए टीम बनाई और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने मामला सीबीआई को सौंपने का निर्देश दिया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के जजों को यह बात समझ में आ गई थी कि फाइलें गायब नहीं हुईं, बल्कि गायब कर दी गई हैं. इसलिए तीनों जजों ने एकमत होकर सरकार को चेतावनी दी है कि आप इस तरह दस्तावेजों पर नहीं बैठ सकते. सीबीआई की जांच के लिए जो दस्तावेज ज़रूरी हैं, उन्हें उपलब्ध कराना होगा.
अब तो साफ़ हो गया है कि कोयला घोटाले में सरकार की तरफ़ से गलतियां हुईं, क्योंकि अब केंद्र सरकार ने ही सुप्रीम कोर्ट में माना है कि कोल ब्लॉक आवंटन में गलतियां हुई हैं और कुछ न कुछ गलतियां ज़रूर हुई हैं. अटॉनी जनरल के इस बयान के बाद कांग्रेस पार्टी में हड़कंप मच गया और इतना दबाव बढ़ गया कि उन्हें अगले दिन अपने ही बयान से पलटने को मजबूर होना पड़ा. सोचने वाली बात यह है कि कोयला घोटाले के मामले में सरकार का पक्ष रखने वाले अटॉर्नी जनरल जीई वाहनवती अब तक यही कहते आए हैं कि कोयला ब्लॉक आवंटन में कुछ भी गलत नहीं हुआ है. अब सवाल यह है कि क्या गलतियां हुईं, किसने गलतियां कीं, इस घोटाले के लिए कौन ज़िम्मेदार है और क्या इसके लिए किसी को सजा मिलेगी या नहीं?
यह सवाल इसलिए पूछना ज़रूरी है, क्योंकि जब कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री का नाम आया, तब कांग्रेस पार्टी और सरकार इमोशनल हो गई. पार्टी ने कहा कि मनमोहन सिंह जैसे ईमानदार व्यक्ति की निष्ठा पर सवाल उठाना एक मजाक है. वहीं मनमोहन सिंह ने एक आदर्शवादी स्टैंड लिया और कहा कि कोयला घोटाले में शक की सुई भी उन पर उठी या जरा भी शक हुआ, तो वह सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लेंगे. मनमोहन सिंह का नाम कोयला घोटाले से इसलिए जुड़ा, क्योंकि 2006 से 2009 तक प्रधानमंत्री के पास ही कोयला मंत्रालय था और यही वह कालखंड है, जब सबसे ज़्यादा कोयला खदानों का आवंटन किया गया था. एक तरफ़ ऐसे बयान दिए गए, लेकिन दूसरी तरफ़ उन्हें बचाने के लिए सरकार ने सारी सीमाएं लांघ दीं. सरकार ने कोयला घोटाले को सिरे से नकार दिया. कांग्रेस के कई बड़े वकील-टर्न-नेताओं ने तो सीएजी और सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों पर ही सवाल खड़ा कर दिया. ऐसे बड़बोले नेताओं का तर्क यह था कि सरकार के नीतिगत ़फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती. आज स्थिति यह है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी गलती मान ली है, लेकिन किसी ने सार्वजनिक जीवन से न तो संन्यास लिया और न ही किसी ने माफी मांगी.
कोयला घोटाले की कहानी की शुरुआत 29 अप्रैल, 2011 से हुई, जब चौथी दुनिया ने सबसे पहले इस घोटाले का पर्दाफाश किया था. हमने यह दावा किया था कि यूपीए सरकार ने देश और संसद को गुमराह करके 26 लाख करोड़ रुपये के कोयले का बंदरबांट कर दिया. उस वक्त न तो सरकार ने इस पर ध्यान दिया और न ही विपक्षी पार्टियों ने इस मुद्दे को उठाया, जबकि भारतीय जनता पार्टी और वाममोर्चा के कई नेताओं को इस घोटाले के बारे में पूरी जानकारी थी. राजनीतिक दलों ने इस मसले को नहीं उठाया, लेकिन सीएजी की नज़रों से यह घोटाला नहीं बच पाया. सीएजी ने कोयला आवंटन के सारे मामलों की जांच की और अपनी रिपोर्ट दी, तो बवंडर मच गया. सीएजी 2जी घोटाले में अपने अनुमान को लेकर सवालों के घेरे में आई थी. कोयला घोटाले में सीएजी ने कोयले की बंदरबांट के मूल्यांकन में काफी कंजूसी बरती और कहा कि यह घोटाला 1.86 लाख करोड़ रुपये का है. चौथी दुनिया का आज भी दावा है और हमारे पास यह सुबूत है कि यह घोटाला 26 लाख करोड़ रुपये का है.
प्रधानमंत्री कार्यालय आरोपों के जवाब तलाशने में जुट गया. घोटाले की जांच की जगह दलीलें और बयान देकर मामले को निपटाने की कोशिश की गई. ठीक उसी तरह, जिस तरह 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले के खुलासे के बाद प्रधानमंत्री ने की थी, संसद के अंदर और संसद के बाहर इसी तरह से ए राजा के बचाव में बयान दिए थे. जब मामला कोर्ट पहुंचा, तो सरकार के चेहरे से नकाब उतर गया. प्रधानमंत्री ने अभी तक देश को यह नहीं बताया कि तीन सालों तक उन्होंने ए राजा का क्यों बचाव किया. वैसे राजनीति में नैतिकता के लिए कोई जगह बची ही नहीं है, वर्ना राजनीतिक मर्यादा जिंदा होती, तो 2-जी घोटाले में कई लोग स्वयं ही इस्तीफा दे देते और किसी को बयानबाजी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. एक बार फिर देश ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां हर दस्तावेज, हर रिपोर्ट और हर ज़िम्मेदार एजेंसी देश के सबसे बड़े घोटाले की ओर इशारा करते हैं.
अब तो यह कहने की भी ज़रूरत नहीं है कि कोयला घोटाले में शक की सुई सीधे प्रधानमंत्री पर जा टिकती है, क्योंकि कोयला खदानों की बंदरबांट सबसे ज़्यादा उस वक्त हुई, जब कोयला मंत्री स्वयं प्रधानमंत्री थे. सबसे पहले सरकार की तरफ़ से यह दलील दी गई कि कोयला खदानों के आवंटन का मकसद पैसा उगाहना नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था की विकास दर तेज करना था. अब कांग्रेस के नेताओं को बताना चाहिए कि दो सालों से वे देश की जनता को क्यों गुमराह करते रहे और अब जबकि सरकार ने गलती मान ली है, तो क्या कोयला घोटाले के लिए कोई ज़िम्मेदारी लेगा या नहीं? दूसरा यह है कि कोयला खदानों को देश में मूलभूत सुविधाएं जुटाने और विकास के लिए आवंटित किया गया था. आवंटन स़िर्फ ऐसी कंपनियों को किया जाना था, जिनका रिश्ता स्टील, बिजली और सीमेंट से है. अब जबकि यह पता चल गया है कि कोयला आवंटन ऐसी-ऐसी कंपनियों को हुआ, जो इसके लिए योग्य नहीं थीं. तो क्या आवंटन करने वाले मनमोहन सिंह पर कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए?
सरकार के मंत्रियों और कांग्रेस के नेताओं ने लोगों को यह कहकर भी गुमराह किया था कि कोयला खदानों का आवंटन मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ एवं पश्चिम बंगाल की राज्य सरकारों की सहमति से किया गया था. मामले को राजनीतिक जामा पहनाने के लिए मीडिया में भाजपा शासित मुख्यमंत्रियों के पत्रों को भी लीक किया गया. सुप्रीम कोर्ट में अब यह साफ़ हो चुका है कि कोयला खदानों के आवंटन पर पूरी तरह से केंद्र का नियंत्रण है और आख़िरी ़फैसला केंद्र के कोयला मंत्री ही लेते हैं. कोयला घोटाले में जिन आवंटनों पर सवाल उठ रहे हैं, उन्हें आवंटित मनमोहन सिंह ने अपने दस्तखत से किया है. मनमोहन सिंह को बचाने के लिए सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी. यह जरा हास्यास्पद है, लेकिन फिर भी जानना ज़रूरी है कि जब सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कड़ा रुख अपनाया, तो मनमोहन सिंह सरकार ने कहा कि फाइलें गायब हो गईं. अब पता नहीं कि फाइलें गायब हुई थीं या फिर गायब कर दी गई थीं. सुप्रीम कोर्ट के रवैये की वजह से कोयला मंत्री ने फाइलें ढूंढने के लिए टीम बनाई और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने मामला सीबीआई को सौंपने का निर्देश दिया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के जजों को यह बात समझ में आ गई थी कि फाइलें गायब नहीं हुईं, बल्कि गायब कर दी गई हैं. इसलिए तीनों जजों ने एकमत होकर सरकार को चेतावनी दी है कि आप इस तरह दस्तावेजों पर नहीं बैठ सकते. सीबीआई की जांच के लिए जो दस्तावेज ज़रूरी हैं, उन्हें उपलब्ध कराना होगा. उन दस्तावेजों को न देने का कोई तर्क नहीं है. अगर ऐसा नहीं कर सकते, तो सीबीआई के पास मुकदमा दर्ज कराना पड़ेगा. कोर्ट ने सरकार के वकील अटॉर्नी जनरल वाहनवती को यह भी चेतावनी दी है कि इसे ऐसे नहीं छोड़ा जा सकता है. हैरानी की बात यह है कि अदालत की फटकार के बाद गायब हुईं फाइलें खुद-ब-खुद सामने आ गईं.
वैसे प्रधानमंत्री को बचाने की कोशिश पहले भी हुई है. 26 अप्रैल, 2013 को सीबीआई डायरेक्टर रंजीत सिन्हा ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दिया. इसमें सीबीआई ने बताया कि कोयला घोटाले की जांच की स्टेटस रिपोर्ट सरकारी नुमाइंदों के सामने 8 मार्च, 2013 को प्रस्तुत की गई थी. ये महानुभाव थे क़ानून मंत्री अश्विनी कुमार, प्रधानमंत्री कार्यालय के एक ज्वॉइंट सेक्रेटरी और कोयला मंत्रालय के ज्वॉइंट सेक्रेटरी. हैरानी की बात यह है कि इससे पहले सरकार और सीबीआई की तरफ़ से कहा गया था कि स्टेटस रिपोर्ट किसी को दिखाई नहीं गई है. देश के अटॉर्नी जनरल वाहनवती ने कोर्ट के सामने यह झूठ बोला था कि स्टेटस रिपोर्ट किसी ने नहीं देखी है, लेकिन सरकार के झूठ का पर्दाफाश हो गया. अगर कोई यह कहे कि प्रधानमंत्री को इसके बारे में जानकारी नहीं थी, तो इसे एक मजाक ही समझा जाएगा. अगर किसी प्लानिंग के तहत उस अधिकारी को इस मीटिंग में नहीं भेजा गया, तो उसके ख़िलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई? हैरानी की बात तो यह है कि सीबीआई ने स्टेटस रिपोर्ट को प्रधानमंत्री के चहेते क़ानून मंत्री, कोयला मंत्रालय एवं पीएमओ के अधिकारियों को स़िर्फ दिखाया ही नहीं, बल्कि रिपोर्ट को बदल भी दिया. 29 अप्रैल, 2013 को सुप्रीम कोर्ट के सामने सीबीआई ने इस बात को माना कि उसकी ओरिजिनल रिपोर्ट में 20 फ़ीसद बदलाव किए गए हैं. मतलब साफ़ है कि सरकार कोयला घोटाले में कोर्ट में झूठ बोलती आई है.
यह मामला स़िर्फ कोयला खदानों के ग़ैरक़ानूनी आवंटन का नहीं है, बल्कि यह संसद और देश की जनता से झूठ बोलने का भी मामला है. सरकार ने संसद में यह वादा किया था कि माइंस और मिनरल (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट 1957 में संशोधन किया जाएगा और तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी. 2006 में यह बिल राज्यसभा में पेश किया गया और यह माना गया कि जब तक दोनों सदन इसे मंजूरी नहीं दे देते और यह बिल पास नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी, लेकिन यह विधेयक चार साल तक लोकसभा में जानबूझ कर लंबित रखा गया और 2010 में ही यह क़ानून में तब्दील हो पाया. इस दरम्यान संसद में किए गए वादे से सरकार मुकर गई और कोयले के ब्लॉक बांटने का गोरखधंधा चलता रहा. इसके साथ-साथ यह मामला सरकारी नियमों के उल्लंघन का भी है. नियमों के मुताबिक, जिन खदानों में कोयले का खनन सतह के नीचे होना है, उनमें आवंटन के 36 माह बाद (और यदि वन क्षेत्र में ऐसी खदान है, तो यह अवधि छह महीने बढ़ा दी जाती है) खनन प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए. यदि खदान ओपन कास्ट किस्म की है, तो यह अवधि 48 माह की होती है (जिसमें अगर वन क्षेत्र हो, तो पहले की तरह ही छह महीने की छूट मिलती है). अगर इस अवधि में काम शुरू नहीं होता है, तो खदान मालिक का लाइसेंस रद्द कर दिया जाता है. हैरानी की बात यह है कि ज़्यादातर खदानों से कभी कोयला निकाला ही नहीं गया. तो सवाल यह है कि नियमों के उल्लंघन पर इन कंपनियों के ख़िलाफ मनमोहन सिंह ने एक्शन क्यों नहीं लिया? दोषी कंपनियों के लाइसेंस क्यों रद्द नहीं किए गए? मनमोहन सिंह की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कोई अनोखी बात नहीं कही, बल्कि सच कबूल किया है. देखना यह है कि अब मनमोहन सिंह अपने वादे से मुकरते हैं या फिर उसे कबूल करते हुए सार्वजनिक जीवन से संन्यास लेते हैं, क्योंकि अब तो शक की सुई ही नहीं, बल्कि सारे सुबूत मनमोहन सिंह के ख़िलाफ खड़े हो गए हैं.
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वैचारिक विरोधाभास किसी भी राजनीतिक दल की सेहत के लिए अच्छा नहीं होता है. ऐसी पार्टियां समाज को नेतृत्व नहीं दे सकतीं, समस्याओं का निदान नहीं कर सकतीं. आम आदमी पार्टी की समस्या यह है कि इसका आधार ही विरोधाभास से ग्रसित है. यही वजह है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बने एक महीना भी नहीं बीता और केजरीवाल के साथ-साथ पूरी पार्टी की टाय-टाय फिस्स हो गई. पार्टी की नीति और नीयत, दोनों उजागर हो गईं. नेताओं की अज्ञानता और अनुभवहीनता लोगों के सामने आ गई. झूठे वायदों का पर्दाफाश हो गया. पार्टी के मतभेद सड़क पर आ गए. सरकार और पुलिस के बीच चिंताजनक मतभेद ने लोगों को निराश किया. सवाल यह है कि आख़िर आम आदमी पार्टी, जिसकी जय-जयकार पूरे देश में हो रही थी, एक ही महीने में लोगों की नज़रों में कैसे गिर गई और लोगों का भरोसा क्यों टूट गया? दिल्ली में सरकार बनने के बाद आम आदमी पार्टी ने पहले पंद्रह दिनों में स़िर्फ एक नीतिगत फैसला लिया और वह था खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश पर. इस फैसले की मीडिया में काफी भर्त्सना हुई, लेकिन आश्चर्य इस बात से हुआ कि आम आदमी पार्टी से भी विरोध के स्वर सुनाई दिए. अरविंद केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली में खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश नहीं होगा. बाज़ार समर्थक अर्थशास्त्रियों ने इस फैसले को गलत बताया, लेकिन आश्चर्य तब हुआ, जब कैप्टन गोपीनाथ ने इस फैसले का विरोध किया, तो नजारा बदल गया. इससे यह साबित हो गया कि पार्टी की कोई विचारधारा नहीं है. पार्टी में मुद्दे को लेकर एकराय नहीं है. हास्यास्पद घटना तो एक टीवी बहस में हुई, जब कैप्टन गोपीनाथ और पार्टी के सबसे नए प्रवक्ता आशुतोष इस मुद्दे पर आपस में भिड़ गए. आशुतोष ने यहां तक कह दिया कि पार्टी का मैनिफेस्टो पढ़े बिना किसी को पार्टी ज्वाइन नहीं करना चाहिए. वैसे सदस्यता अभियान की घोषणा करने से पहले तो यह बताया नहीं गया था. यूं भी पार्टी का मैनिफेस्टो तो दिल्ली के लिए था… मुंबई वालों को दिल्ली के मैनिफेस्टो से क्या लेना-देना? आप की विचारधारा तो उसकी वेबसाइट पर होनी चाहिए, लेकिन वह वहां नहीं है. लेकिन इसी बहस के दौरान जब किरण बेदी ने आशुतोष के उस बयान को सामने रखा, जिसमें उन्होंने विदेशी निवेश का विरोध करने वालों को मूर्ख बताया था, तब आशुतोष पूरी तरह से बेनकाब हो गए. दरअसल, जबसे सरकार बनी है, तबसे आम आदमी पार्टी एक न एक वैचारिक मुद्दे में उलझती गई और हर बार यही सिद्ध होता गया कि आम आदमी पार्टी का आधार न तो कोई समग्र विचारधारा है और न ही कोई नीति है. यह सचमुच हैरानी की बात है कि एक पार्टी, जो देश की सत्ता पर काबिज होने का लालच तो रखती है, लेकिन उसके पास न विचारधारा है, न आर्थिक नीति है, न विदेश नीति है, न सुरक्षा नीति है, न उद्योग नीति है, न कृषि नीति है और न ही महंगाई, बेरोज़गारी, अशिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से निपटने का कोई ब्लूप्रिंट है. दरअसल, इस पार्टी की दृष्टि ही संकुचित है. यह पार्टी देश की समस्याएं सामने लाने को ही विचारधारा समझती है. यही वजह है कि जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, आम आदमी पार्टी एक्सपोज होती जा रही है. वैसे अरविंद केजरीवाल बड़ी-बड़ी बातें कहकर लोगों को झांसा देते आए हैं. वह ऐसी बातें कहते हैं, जिनका न तो सिर है, न पैर. अरविंद केजरीवाल देश में व्यवस्था परिवर्तन की बातें करते हैं. वैसे संविधान निर्माताओं ने भारत की विशालता और जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए भारत को एक रिप्रेजेंटेटिव डेमोक्रेसी यानी प्रतिनिधि प्रजातंत्र बनाया था, जिसमें लोग अपने प्रतिनिधि चुनते हैं और वही जनता की ओर से ़फैसले लेते हैं. इसमें कई कमियां ज़रूर हैं, जिन्हें दुरुस्त करने की ज़रूरत है, लेकिन अरविंद केजरीवाल के दिमाग में कुछ और ही है. वह भारत को डायरेक्ट डेमोक्रेसी यानी सहभागी प्रजातंत्र में तब्दील करना चाहते हैं. इस व्यवस्था में सरकार के हर ़फैसले में जनता की राय ज़रूरी है. इसीलिए सरकार को सीधे जनता के बीच ले जाना, जनता द्वारा ही नीतियां बनाना एवं जनता से पूछकर सरकार चलाना जैसी बातें अरविंद केजरीवाल करते हैं. इसी बात को साबित करने के लिए अरविंद केजरीवाल ने जनता दरबार सड़क पर बुलाया, लेकिन जब जनता आई, तो अरविंद केजरीवाल के व्यवस्था परिवर्तन के नज़रिए पर सवाल खड़ा हो गया, वहां भगदड़ मच गई और जनता दरबार में भगदड़ के डर से भागने वाले सबसे पहले स्वयं अरविंद केजरीवाल थे. लेकिन जब वह सचिवालय की छत से लोगों से मुखातिब हुए, तो वह चिल्ला- चिल्लाकर जनता दरबार को जन अदालत कहते नज़र आए. यह बड़ा ही हास्यास्पद है, क्योंकि मुख्यमंत्री अदालत नहीं लगा सकते. वैसे देश में जन अदालत लगती है, जहां ग़ैरक़ानूनी तरीके से इंसाफ दिया जाता है, थप्पड़ मारने से लेकर मौत तक का फरमान सुनाया जाता है और ऐसी जन अदालत देश में नक्सली लगाते हैं. हैरानी की बात यह है कि देश की सबसे ईमानदार पार्टी के पहले कार्यक्रम में ही कई महिलाओं के साथ छेड़छाड़ हुई, वे टीवी चैनलों पर रो-रोकर अपनी व्यथा सुना रही थीं. कई लोगों के फोन गायब हो गए और उन्हें पता नहीं चला. साथ ही कई लोगों के बटुए भी पॉकेटमारों ने गायब कर दिए. फिलहाल इन मामलों में पुलिस ने शिकायत तो ले ली है. इस बीच पार्टी ने लोकसभा चुनाव में हिस्सा लेने का ऐलान किया. साथ ही 26 जनवरी तक एक करोड़ सदस्य बनाने का लक्ष्य रखा. फॉर्म भरकर सदस्यता, पोस्टकार्ड से सदस्यता, ईमेल से सदस्यता, फेसबुक पर सदस्यता, वेबसाइट पर जाकर सदस्यता, यहां तक कि फोन से मिस्डकॉल मारकर सदस्यता के प्रावधान तैयार किए गए. मीडिया के जरिए बड़े-बड़े लोगों ने आम आदमी पार्टी को ज्वाइन किया. जब आपने सब तरह के लोगों के लिए दरवाजा खोल दिया, तो यह कैसे तय होगा कि आम आदमी पार्टी में शामिल होने वाले लोग भ्रष्ट, बलात्कारी, गुंडे-बदमाश नहीं हैं. पटना से ख़बर आई कि वहां जो व्यक्ति सदस्यता अभियान चला रहा है, वह एक हिस्ट्रीशीटर है और उस पर 24 आपराधिक मामले दर्ज हैं. कहने का मतलब यह है कि लोकसभा चुनाव में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने के लिए आप ने अच्छे-बुरे और सही-गलत का अंतर ख़त्म कर दिया. इसका खामियाजा आने वाले दिनों में पार्टी को ज़रूर भुगतना पड़ेगा. आम आदमी पार्टी के एक विधायक ने जब बगावत की, तो हड़कंप मच गया. मीडिया के जरिए यह बताने की कोशिश की गई कि बगावत कर रहे विधायक विनोद कुमार बिन्नी लोकसभा का टिकट मांग रहे थे. वह लालची हैं, स्वार्थी हैं और पहले भी ऐसी हरकत कर चुके हैं, जब वह मंत्री पद मांग रहे थे. फिर पार्टी की तरफ़ से यह भी दलील दी गई कि वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं, कांग्रेस की साजिश का हिस्सा बन गए हैं. कहने का मतलब यह है कि एक साधारण-सा एमएलए थोड़ा नाराज क्या हुआ, पार्टी के महान नेताओं से लेकर सोशल मीडिया पर काम करने वाले आम आदमी पार्टी के वेतनभोगी कार्यकर्ता तक बिन्नी पर ऐसे टूट पड़े, जैसे उसने किसी की हत्या कर दी, दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी हो गया. कश्मीर के मुद्दे पर पार्टी फिर बैकफुट पर आ गई. एक टीवी चैनल पर प्रशांत भूषण ने कश्मीर पर विवादास्पद बयान दिया. वह पहले भी कश्मीर पर बयान देकर विवाद खड़ा कर चुके हैं. अब यह समझ के बाहर है कि यह कोई रणनीति है या आदत, लेकिन समय-समय पर वह कश्मीर की बात छेड़कर हंगामा खड़ा कर देते हैं. पहले उन्होंने कश्मीर में रेफेरेंडम की बात की और कहा था कि अगर कश्मीर के लोग भारत से अलग होना चाहते हैं, तो उन्हें अलग होने का अधिकार है. इस बार उन्होंने कहा कि कश्मीर के अंदर सुरक्षा में लगी सेना के लिए रेफेरेंडम होना चाहिए. पार्टी को फिर सफाई देनी पड़ी. लेकिन जो सफाई आई, उसमें भी घालमेल किया गया. लेकिन हैरानी तो तब हुई, जब पार्टी में जेएनयू के प्रोफेसर कमल मित्र चेनॉय को शामिल किया गया. तो अब पार्टी को यह जवाब देना चाहिए कि क्या वह संसद पर हमला करने वाले आतंकी अफजल गुरु को शहीद एवं निर्दोष इसलिए मानती है, क्योंकि प्रोफेसर कमल मित्र चेनॉय संसद पर हमला करने वाले आतंकी अफजल गुरु को शहीद और निर्दोष मानते हैं. वह कश्मीर के अलगाववादियों के समर्थक हैं और ट्वीटर के जरिए अलगाववादियों को आपस में लड़ने से मना करते हैं और एकजुट होकर भारत के ख़िलाफ लड़ने की सलाह देते हैं. इसके अलावा, हाल में वह सुर्खियों में तब आए थे, जब पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के मिस्टर फाई के नेटवर्क का खुलासा हुआ था. पता चला कि वह मिस्टर फाई के सेमिनारों में शिरकत करते रहे हैं. इसके अलावा कामरेड कमल मित्र ने अमेरिकी कांग्रेस की कमेटी में गुजरात के दंगों के बारे में यह बताया कि गुजरात में जो हुआ, वह दंगा नहीं, बल्कि जनसंहार था…स्टेट स्पोंसर्ड जेनोसाइड. समझने वाली बात यह है कि आम आदमी पार्टी में शामिल होने के बाद उन्होंने यह भी बयान दिया है कि वह अपने विचारों पर आज भी अडिग हैं. एक तरफ़ कमल मित्र चेनॉय हैं, तो दूसरी तरफ़ कुमार विश्वास हैं, जो नरेंद्र मोदी को भगवान शिव की संज्ञा देते हैं. इंटरनेट पर मौजूद तमाम वीडियो में कुमार विश्वास कवि सम्मेलनों में अक्सर मोदी की तारीफ़ करते नज़र आते हैं. यह कैसे संभव है कि एक ही पार्टी में कुमार विश्वास भी रहें और कमल मित्र चेनॉय भी? ऐसा लगता है कि आम आदमी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता फिल्मों को ज़रूरत से ज़्यादा ही सच मान बैठे हैं. चुनाव के दौरान भी इस पार्टी के लोग अनिल कपूर की फिल्म नायक का पोस्टर लोगों को दिखाते थे. कुमार विश्वास इस फिल्म का हवाला भी देते थे कि अरविंद केजरीवाल फिल्म नायक के अनिल कपूर की तरह हैं. इसलिए जब सरकार बनी, तो आम आदमी पार्टी के नेता एवं मंत्री बैटमैन और सुपरमैन और हिंदी फिल्म के शहंशाह की तरह रातों में दिल्ली की सड़कों पर निरीक्षण करते नज़र आते हैं. मीडिया और टीवी चैनलों को पहले से बता दिया जाता है कि मंत्री जी आज रात किस वक्त कहां रहेंगे. मंत्रियों के इसी फिल्मी अंदाज की वजह से दिल्ली सरकार के क़ानून मंत्री सोमनाथ भारती दिल्ली पुलिस से ही उलझ गए. उन्होंने ऐसा ड्रामा किया कि पार्टी की चौतरफ़ा किरकिरी हुई. मंत्री जी को यह भी पता नहीं है कि विदेशी महिलाओं को वेश्या और ड्रग एडिक्ट कहने से पहले थोड़ा संयम ज़रूरी है. वैसे एक जज द्वारा इस मामले की जांच चल रही है, लेकिन सोमनाथ भारती इससे पहले भी एक विवाद में आ चुके हैं. सोमनाथ भारती पेशे से वकील हैं. वह अरविंद केजरीवाल के सारे मुकदमे लड़ते हैं. अब पता नहीं कि यह किस तरह की पारदर्शी और आदर्शवादी राजनीति है, लेकिन आम आदमी पार्टी के लोग इसे पार्टी के अंदर गुटबाजी और भाई-भतीजावाद का संकेत बताते हैं और कहते हैं कि इसी वजह से इन्हें पार्टी का टिकट मिला और बाद में मंत्री भी बने. क़ानून मंत्री बनने के साथ ही उनका झगड़ा अपने सचिव से हो गया. मुद्दा यह था कि मंत्री ने दिल्ली के जजों को मीटिंग के लिए बुलाने के आदेश दे दिए, लेकिन जब सचिव ने बताया कि क़ानून मंत्री को जजों को बुलाने का अधिकार नहीं है, तो वह आगबबूला हो गए. सचिव ने जब शिकायत की और मीडिया में सवाल उठा, तो यह कहा गया कि नए-नए मंत्री बने हैं, उन्हें पता नहीं होगा. लेकिन दूसरा मुद्दा जब सामने आया, तो लोगों के रोंगटे खड़े हो गए. पता चला कि सुबूतों के साथ गंभीर छेड़छाड़ के लिए अदालत क़ानून मंत्री सोमनाथ भारती को फटकार लगा चुकी है. अरविंद केजरीवाल को यह बताना चाहिए कि क्या वह ऐसे ही लोगों को साथ लेकर ईमानदारी की राजनीति करना चाहते हैं, लेकिन उस वक्त अरविंद केजरीवाल के चेहरे से भी नकाब उतर गया, जब उन्होंने भारती के इस मामले में कोर्ट को दोषी बता दिया. किसी भी मुख्यमंत्री के मुंह से अदालत के बारे में ऐसा बयान निकले, तो यह एक ख़तरनाक संकेत है. पार्टी के अंदर भी अब सवाल उठने लगे हैं. लोग योगेंद्र यादव से नाराज हैं. योगेंद्र यादव जनलोकपाल आंदोलन के दौरान अन्ना के साथ नहीं थे. उनकी पहचान यह थी कि वह 2009 से राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु रहे हैं. कांग्रेस पार्टी ने ही उन्हें यूजीसी का सदस्य बनाया था. जबसे वह पार्टी में आए और जिस तरह से नीति निर्धारण के मुख्य केंद्र बन गए, उससे पुराने लोगों के अंदर घुटन हो रही है. वैसे पार्टी के अंदर वही होता है, जो अरविंद केजरीवाल चाहते हैं. पार्टी से जुड़े कई लोग उन्हें तानाशाह कहते हैं. वह पार्टी के अंदर तीन-चार लोगों की कोटरी के जरिए ़फैसले लेते हैं. दिल्ली में सरकार है, विधायक हैं, लेकिन पार्टी और सरकार के ़फैसले में विधायकों की हिस्सेदारी न के बराबर है. कई लोग दबी जुबान से कहते हैं कि योगेंद्र यादव और दूसरे लोग यदि प्रजातंत्र में इतना ही विश्वास रखते हैं, तो पार्टी की 23 एक्जीक्यूटिव समितियों का चयन चुनाव के जरिए क्यों नहीं किया गया? आम आदमी पार्टी के कई लोगों ने कहा कि फिलहाल सबके सामने दिल्ली और लोकसभा की चुनौती है, इसलिए कोई खुलकर विरोध नहीं करना चाहता है, वरना पार्टी में कभी भी विस्फोटक स्थिति पैदा हो सकती है, लेकिन यह पता नहीं था कि ऐसी स्थिति सरकार बनने के ठीक 15 दिनों में ही आ जाएगी. आम आदमी पार्टी के एक विधायक ने जब बगावत की, तो हड़कंप मच गया. मीडिया के जरिए यह बताने की कोशिश की गई कि बगावत कर रहे विधायक विनोद कुमार बिन्नी लोकसभा का टिकट मांग रहे थे. वह लालची हैं, स्वार्थी हैं और पहले भी ऐसी हरकत कर चुके हैं, जब वह मंत्री पद मांग रहे थे. फिर पार्टी की तरफ़ से यह भी दलील दी गई कि वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं, कांग्रेस की साजिश का हिस्सा बन गए हैं. कहने का मतलब यह है कि एक साधारण-सा एमएलए थोड़ा नाराज क्या हुआ, पार्टी के महान नेताओं से लेकर सोशल मीडिया पर काम करने वाले आम आदमी पार्टी के वेतनभोगी कार्यकर्ता तक बिन्नी पर ऐसे टूट पड़े, जैसे उसने किसी की हत्या कर दी, दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी हो गया. जबकि बड़ी आसानी और शालीनता से बिन्नी का मसला सुलझाया जा सकता था. बुद्धि और तजुर्बा किसी यूनिवर्सिटी में नहीं पढ़ाया जा सकता, इसके लिए विवेक होना ज़रूरी है, जिसकी फिलहाल आम आदमी पार्टी में कमी नज़र आ रही है. हिंदुस्तान में ऐसी कौन-सी पार्टी है, जिसमें कोई नेता या विधायक या सांसद ने बगावत न की हो, लेकिन ऐसी किरकिरी किसी पार्टी की नहीं होती. विधायक बिन्नी ने पार्टी के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद की. समझने वाली बात यह है कि बिन्नी ने उन्हीं मुद्दों को उठाया, जिन्हें लेकर दिल्ली के निवासी भी आम आदमी पार्टी को शक की निगाह से देख रहे थे. बिन्नी ने स़िर्फ यही कहा कि अरविंद केजरीवाल की कथनी और करनी में फर्क आ गया है, मैनिफेस्टो में कोई किंतु-परंतु नहीं था, यह सब चालाकी से किया गया है जिन लोगों के घर पर 400 यूनिट से ज़्यादा बिजली और 700 लीटर से ज़्यादा पानी का इस्तेमाल हो रहा है, उनका क्या दोष है? यह दिल्ली की जनता के साथ धोखा है. यह बिल्कुल सच ही है, क्योंकि मुफ्त पानी और बिजली की नीतियों से चंद लोगों को फायदा पहुंचाया गया और ज़्यादातर दिल्ली की जनता खुद को छला महसूस कर रही है. बिन्नी ने अरविंद केजरीवाल से पूछा कि 15 दिनों में जनलोकपाल बिल लाने के वायदे का क्या हुआ, क्योंकि समय बीत जाने के बाद भी जनलोकपाल नहीं आया है. अरविंद केजरीवाल को शायद यही बुरा लग गया. ग़ौरतलब है कि चौथी दुनिया ने चुनाव से पहले ही बता दिया था कि दिल्ली में जनलोकपाल का वायदा एक छलावा है, क्योंकि कोई भी राज्य सरकार जनलोकपाल क़ानून नहीं बना सकती और फिर दिल्ली सरकार की शक्तियां तो वैसे भी दूसरे राज्यों की तुलना में बेहद कम हैं, इसलिए यह संभव नहीं है. विनोद कुमार बिन्नी अपनी पार्टी के नेताओं की ड्रामेबाजी से भी नाराज थे. उन्हें लगता है कि सरकार चलाना और मीडिया के जरिए हंगामा खड़ा करना, दोनों अलग बात हैं. किसी भी ज़िम्मेदार सरकार को ड्रामेबाजी से बचना चाहिए. इसलिए उन्होंने यह खुलासा किया कि अरविंद केजरीवाल के मंत्री रात में दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में दौरा तो करते हैं, लेकिन साथ में मीडिया को बुलाकर लेकर जाते हैं. टीवी कैमरे के सामने वे अधिकारियों को फोन करते हैं और पुलिस से भिड़ जाते हैं. ऐसा करने की वजह समस्याओं का समाधान नहीं, बल्कि मीडिया में सुर्खियां बटोरना होता है, ताकि अगले दिन सुबह-सुबह वे टीवी चैनलों पर दिखें. समस्या यह है कि मीडिया की वजह से लोकप्रिय होने वाली पार्टी को यह लगता है कि टीवी कैमरे के जरिए ही राजनीति संभव है. जबकि हकीकत यह है कि जिन-जिन नेताओं को मीडिया ने बनाया, उन्हें जनता के सामने बेनकाब करने का काम भी इसी मीडिया ने किया. राजनीति में ज़्यादा दिन टिकने वाले नेता मीडिया को बुलाते नहीं, बल्कि मीडिया उनके पीछे चलता है और उन्हें ड्रामेबाजी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती. आम आदमी पार्टी की किरकिरी तबसे ही शुरू हो गई, जबसे सरकार बनी. पार्टी ने कहा था कि चुनाव जीतने के बाद गाड़ी-बंगला नहीं लेंगे, लालबत्ती नहीं लेंगे. हम आम आदमी की तरह ही रहेंगे. आम आदमी पार्टी न तो भाजपा एवं कांग्रेस से समर्थन लेगी और न देगी, लेकिन जैसे ही सरकार बनी, अरविंद केजरीवाल बेनकाब हो गए. आम आदमी पार्टी ने वही सारे काम किए, जिनका वह चुनाव से पहले विरोध कर रही थी. आम आदमी पार्टी, दरअसल, व्यवस्था और राजनीतिक दलों के प्रति लोगों की नाराजगी का फायदा उठा रही है, लेकिन उसके पास लोगों की समस्याओं के निदान का कोई नक्शा नहीं है. समझने वाली बात यह है कि अगर देश के हर राज्य में मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त शिक्षा और मुफ्त चिकित्सा सुविधाओं की मांग को लेकर आंदोलन होने लगें, तो क्या होगा? इतना पैसा कहां से आएगा? देश की आर्थिक स्थिति पर इसका क्या प्रभाव होगा, इसके बारे में कौन सोचेगा? आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनाव लड़ने वाली है. पार्टी का दावा है कि वह लोकसभा चुनाव में 400 उम्मीदवारों को मैदान में उतारेगी. अब सवाल यह है कि अरविंद केजरीवाल अगर प्रधानमंत्री पद की दौड़ में कूदेंगे, तो दिल्ली का क्या होगा? दूसरी बात यह कि आम आदमी पार्टी को लोकसभा में बहुमत नहीं मिलेगा, इसलिए उन्हें यह बताना होगा कि चुनाव के बाद वह किस पार्टी को साथ देंगे? वह भाजपा के साथ जाएंगे या फिर कांग्रेस के? आम आदमी पार्टी को अपनी नीतियां और विचारधारा भी लोगों के सामने स्पष्टता से रखनी होंगी. सबसे बड़ा सवाल देश की जनता के सामने है कि क्या वह एक ऐसी पार्टी को समर्थन देगी, जिसके पास न विचारधारा है, न नीतियां हैं और यह भी पता नहीं है कि उसका एजेंडा क्या है? कहीं ऐसा न हो कि विधानसभा चुनाव के बाद जिस तरह दिल्ली की जनता ठगी सी महसूस कर रही है, लोकसभा चुनावों के बाद देश की जनता को अफसोस न करना प़डे. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2014/02/neeti-or-niyat-saaf-nahi-hai.html#sthash.zA4tzen8.dpuf
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