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Thursday 1 May 2014
चुनाव से पहले ही राहुल हार गए
चुनाव से पहले ही राहुल हार गए |
लोकसभा चुनाव के नतीजे 16 मई को आने वाले हैं, लेकिन देश का राजनीतिक माहौल दीवार पर लिखी इबारत की तरह यह संकेत दे रहा है कि यूपीए सरकार की हार निश्चित है. कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव के बीच मैदान छोड़कर भाग रहे हैं. हार की वजह यूपीए सरकार के दौरान भ्रष्टाचार, महंगाई और घोटाले हैं. विकास के मुद्दे पर कांग्रेस पार्टी की बातों पर लोगों को अब भरोसा नहीं रहा. राहुल गांधी खुद को एक नेता के रूप में साबित करने में विफल रहे हैं. राहुल गांधी की सबसे बड़ी चूक यह है कि वह युवाओं का भरोसा नहीं जीत सके. राहुल गांधी का नरेंद्र मोदी को सीधे चुनौती न देना कांग्रेस की सबसे बड़ी भूल है. नरेंद्र मोदी को वॉक-ओवर देकर कांग्रेस ने भाजपा विरोधियों को निराश किया, साथ ही इस वजह से मुसलमानों का वोट बंट गया. राहुल गांधी ने मोदी का सामना न करके खुद को एक हारा हुआ योद्धा साबित किया है.
कांग्रेस पार्टी का कैंपेन एक शर्मनाक स्थिति में है. राहुल गांधी लोगों की नज़र में चुनाव से पहले ही हार चुके हैं. उनके भाषणों से लोगों में कोई विश्वास नहीं जगता है. वह एक ही तरह की बात हर रैली में कहते हैं, इसलिए जब उनका भाषण टीवी पर दिखाया जाता है, तो लोग चैनल बदल लेते हैं. अगर नरेंद्र मोदी की रैली साथ में होती है, तो टीवी चैनल वाले ही राहुल की आवाज़ बंद कर देते हैं. राहुल की साख एक नेता की नहीं बन सकी. राहुल गांधी किसानों का दिल नहीं जीत सके. देश के मज़दूर और दलित भी उन्हें अपना नेता नहीं मानते हैं. मुसलमानों में भी वह अपना स्थान नहीं बना पाए हैं और देश के युवाओं के बीच वह एक मजाक बनकर रह गए हैं. यही वजह है कि राहुल गांधी की रैली में अब लोग नहीं आते हैं. कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि जब वह बोलने के लिए उठे, तो लोग रैलियां छोड़कर जाने लगे. राहुल गांधी न तो आम जनता को जीत सके और न कांग्रेस पार्टी के कार्यकर्ताओं एवं समर्थकों का हौसला बढ़ा सके. कांग्रेस के कई नेता तो चुनाव से पहले ही कांग्रेस की ऐतिहासिक हार की भविष्यवाणी करने लगे हैं. उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी की लोकप्रियता रसातल में कैसे चली गई. चुनाव से पहले ही पार्टी के नेता एवं कार्यकर्ता हताश और निराश हो चुके हैं. ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने चुनाव से पहले ही हार मान ली है या यूं कहें कि कांग्रेस ने नरेंद्र मोदी को वॉक-ओवर दे दिया है. सवाल यह है कि कांग्रेस पार्टी से आख़िर चूक कहां हुई, वह इस हालत में पहुंची कैसे?
पिछले 10-12 सालों से कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को एक यूथ आइकन यानी एक युवा नेता के रूप में पेश करने की कोशिश में लगी रही. हर दो साल पर राहुल गांधी के सक्रिय राजनीति में आने की मांग उठती रही. राहुल गांधी का प्रचार होता रहा. राहुल गांधी के सक्रिय राजनीति में आने का मामला ऐसा हुआ, जैसे पहले आप-पहले आप के चक्कर में ट्रेन छूट जाती है. राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी की आंखें तब खुलीं, जब ट्रेन छूट चुकी थी. आख़िरकार, पिछले साल जयपुर के कार्यक्रम में उन्हें कांग्रेस पार्टी का उपाध्यक्ष घोषित किया गया, लेकिन यहां भी उन्होंने यह कह दिया कि सत्ता जहर है. अब पता नहीं कि राहुल के उस भाषण को किसने लिखा था. राजनीतिक दल के लिए अगर सत्ता जहर है, तो उन्हें समाजसेवी संस्था बना देना चाहिए. अगर सत्ता जहर है, तो चुनाव नहीं लड़ना चाहिए. कहने का मतलब यह कि राहुल गांधी का अपना ईमेज मेकओवर और कैंपेन संशय से ग्रसित रहा. इस संशय का दूसरा उदाहरण राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार न बनाना है. कांग्रेस पार्टी यह समझ नहीं सकी कि देश की जनता मनमोहन सिंह जैसे प्रधानमंत्री से ऊब चुकी है. उसे एक सक्रिय और निर्णायक प्रधानमंत्री चाहिए. पिछले दस सालों में राहुल गांधी यह साबित नहीं कर सके हैं कि वह एक निर्णायक व्यक्तित्व हैं. यही वजह है कि लोगों की नज़रों में वह प्रधानमंत्री बनने की दावेदारी में नरेंद्र मोदी से काफी पीछे छूट गए. इतने पीछे कि कोई प्रचार अभियान उसकी पूर्ति नहीं कर सकता.
वैसे कांग्रेस पार्टी का प्रचार अभियान भी अजीब है. किसी भी पोस्टर और वीडियो में कांग्रेस पार्टी ने लोगों से यह अपील तक नहीं की है कि कांग्रेस को वोट दें या हाथ के निशान पर बटन दबाएं. कांग्रेस का प्रचार अभियान पूरी तरह से ग़ैर-राजनीतिक है. सवाल यह है कि कांग्रेस के वे अक्लमंद लोग कौन हैं, जिन्होंने ऐसे प्रचार की रूपरेखा तैयार की है. पहले जब सोनिया गांधी के हाथ में कमान थी, तो हर योजना पर चर्चा होती थी. भाषण में क्या होगा, नारे क्या होने चाहिए, वीडियो कैसा बनाना है, रैलियों का आयोजन कैसे होगा, उम्मीदवारों को कैसे चुना जाएगा, समाजसेवी संगठनों को कैसे इस्तेमाल करना है, मीडिया को कैसे मैनेज करना है, इन सब बातों पर चर्चा होती थी और फिर रणनीति बनती थी. सोनिया गांधी के आसपास राजनीतिक लोग थे, जो टीवी पर नज़र नहीं आते थे. वे जमीनी स्तर पर ़फैसले को लागू करने में माहिर थे. इसलिए हर रणनीति कामयाब होती थी. राहुल गांधी के पार्टी के केंद्र में आते ही कांग्रेस के कई अनुभवी नेता निर्णायक भूमिका से दूर चले गए. राहुल गांधी अपने कुछ ख़ास लोगों से घिरे हुए हैं. ये वही लोग हैं, जिनकी वजह से बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ एवं दिल्ली के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस पार्टी का विनाश हो गया. राहुल के ख़ास सलाहकारों में कनिष्क सिंह, मोहन सिंह, मोहन प्रकाश, मधुसूदन मिस्त्री, के जे राव एवं संजय झा जैसे लोग हैं. इनमें से किसी ने ज़मीनी स्तर की राजनीति नहीं की. ये विचारक हैं, टीवी पर बहस करते हैं और ज़मीनी स्तर पर पार्टी कार्यक्रम नहीं करा सकते. इन लोगों की न तो राजनीतिक सोच है और न इनके पास राजनीतिक अनुभव है.
यूपीए सरकार के मंत्री पिछलेदो-तीन सालों से सोनिया गांधी और राहुल गांधी को सब्जबाग दिखाते रहे, यह भरोसा दिलाते रहे कि सरकार की नीतियों की वजह से कांग्रेस चुनाव जीत जाएगी. जब मौक़ा आया, तो मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए. क्या कांग्रेस पार्टी में एक ऐसा गुट तैयार हो चुका है, जो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहता है?
ऐसे ही सलाहकारों ने चुनाव के दौरान प्रचार-प्रसार और प्रोपेगेंडा के तूफानी हमले की योजना बनाई. राहुल गांधी को योजना बताई गई, राहुल गांधी ने हां कर दी. पता चला कि यह तूफानी हमला कांग्रेस संगठन के लोग नहीं करेंगे, बल्कि इसके लिए विदेशी एजेंसियों को चुना गया. प्रचार का काम अमेरिकी कंपनी बरसन-मार्शेलर और जापानी कंपनी देन्तसू को दिया गया. इस काम के लिए कांग्रेस पार्टी ने 700 करोड़ रुपये दिए, ताकि होर्डिंग्स, पोस्टर्स, रेडियो, अख़बारों और टीवी चैनलों के जरिये प्रचार हो सके. इनका काम मनमोहन सरकार की उपलब्धियों का प्रचार और राहुल गांधी का इमेज-मेकओवर करना था, ताकि लोग कांग्रेस को भाजपा से बेहतर मानें और वोट दें. चुनाव आयोग के मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट लागू होने से पहले ही देश भर में प्रचार-प्रसार का काम शुरू हो गया. एक कांग्रेस नेता ने बताया कि इन एजेंसियों की पहली योजना मनमोहन सरकार के ख़िलाफ़ नकारात्मक प्रचार को निष्प्रभावी करना था और उसके बाद राहुल का सकारात्मक प्रचार करके उनकी छवि निखारना था. पहली योजना के तहत इन एजेंसियों ने मनरेगा, फूड सिक्योरिटी, डायरेक्ट कैश ट्रांसफर, यूआईडी एवं आरटीआई जैसे कई मुद्दों का प्रचार किया, लेकिन उस प्रचार को देखकर लोगों का रिएक्शन उल्टा हो गया. मनरेगा भ्रष्टाचार की वजह से सबसे बदनाम योजना बनकर रह गई है, किसी को कैश मिला नहीं, यूआईडी को लेकर भी संशय बना हुआ है. विपक्ष ने स़िर्फ इतना कहकर कि कांग्रेस पार्टी उन कामों का भी श्रेय लेना चाह रही है, जो अभी हुए ही नहीं हैं, प्रचार की हवा निकाल दी. इन्हीं कंपनियों के ज़रिये अंग्रेजी चैनल टाइम्स नाऊ के अर्नब गोस्वामी के साथ इंटरव्यू रखा गया. उस एक इंटरव्यू ने राहुल गांधी को जो नुक़सान पहुंचाया, उसकी भरपाई 700 करोड़ रुपये लेने वाली ये एजेंसियां अभी तक नहीं कर सकी हैं. इसके बाद इन कंपनियों द्वारा राहुल के इमेज मेकओवर की सारी योजना विफल हो गई. मोदी के सामने राहुल एक नौसिखिया ही बने रहे. कांग्रेस पार्टी ने राहुल की मार्केटिंग करने की बहुत कोशिश की, लेकिन वह असफल हो गई. राहुल गांधी का यह कहना कि भाजपा मार्केटिंग करने में एक्सपर्ट है, इस बात की पुष्टि करता है कि जो 700 करोड़ रुपये उन्होंने दो विदेशी कंपनियों को दिए, वे बेकार साबित हुए. राहुल गांधी को यह बात समझ में नहीं आई कि अगर पार्टी के ही अनुभवी नेताओं को 700 करोड़ रुपये देकर प्रचार की ज़िम्मेदारी सौंपी गई होती, तो आज उनकी भी मोदी के टक्कर की मार्केटिंग हो गई होती.
आज वह मोदी को चुनौती देते नज़र आते. लेकिन, सवाल यह है कि आख़िर ऐसी क्या बात है कि राहुल गांधी की सारी मार्केटिंग और प्रचार योजना विफल हो गई.
यूपीए के 10 सालों को आज़ाद हिंदुस्तान के इतिहास के एक काले धब्बे के रूप में याद किया जाएगा. मनमोहन सरकार ने खुद को एक झूठी, भ्रष्ट, जनविरोधी और आज़ाद भारत की सबसे बदनाम सरकार के रूप में स्थापित किया. उसने संसद और सुप्रीम कोर्ट में झूठ बोलने का कीर्तिमान स्थापित किया. देश की जनता यह मानती है कि यूपीए सरकार आज़ाद भारत की अब तक की सबसे भ्रष्ट सरकार है. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ऐतिहासिक महंगाई और बेरोज़गारी देखी गई. किसानों ने सबसे ज़्यादा आत्महत्याएं कीं. यूपीए सरकार के दौरान एक-एक करके कई सारे प्रजातांत्रिक संस्थानों की विश्वसनीयता ही नष्ट कर दी गई. मीडिया में पिछले तीन सालों से यूपीए सरकार स़िर्फ घोटालों और अकर्मण्यता के लिए चर्चा में रही. मनमोहन सिंह एक कमजोर प्रधानमंत्री साबित हुए और उनकी सरकार ़फैसला न लेने वाली सरकार के नाम से मशहूर हो गई. पहली बार कैबिनेट मंत्रियों को जेल जाना पड़ा. पहली बार किसी घोटाले में शक की सूई प्रधानमंत्री पर पड़ी. यह सब कम था, तो बाकी काम महंगाई और बेरोज़गारी ने कर दिया. लोग नाराज़ थे. दो साल पहले से ही कांग्रेस पार्टी को यह अंदाज़ा था कि 2014 आसान नहीं होने वाला है. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के आंदोलन में जिस तरह से लोगों ने हिस्सेदारी की, वह कांग्रेस के ख़िलाफ़ जनविरोध का प्रमाण था. कांग्रेस पार्टी के नेता सब देख रहे थे, सरकार देख रही थी, सबके सामने एक सबसे बड़ी चुनौती थी, राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की चुनौती. कांग्रेस गांधी परिवार की पार्टी है. यह सबको पता था कि 2014 का चुनाव राहुल गांधी के नेतृत्व में लड़ा जाएगा. इसके लिए यूपीए सरकार और कांग्रेस के मंत्रियों ने क्या कोई तैयारी कर रखी थी?
दो साल पहले सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी से बातचीत के दौरान कई जानकारियां मिलीं. पता चला कि कांग्रेस पार्टी का 2014 का चुनाव जीतने का फॉर्मूला क्या है. उन्होंने बताया कि सरकार का मुख्य लक्ष्य आधार कार्ड बनवाना है. इसके बाद डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीम लागू की जाएगी. कांग्रेस पार्टी के नेताओं का यह मानना था कि अगर लोगों के बैंक एकाउंट में सीधे पैसा जाने लगेगा, तो सारी नाराज़गी ख़त्म हो जाएगी. सरकार चुनाव जीतने के लिए फूड सिक्योरिटी बिल लेकर आएगी, जिसके तहत देश की बहुमत आबादी को मुफ्त में खाने का सामान मुहैय्या कराया जाएगा. उन्होंने बताया कि आधार कार्ड बनने और इन योजनाओं को लागू करने के बाद देश के सभी जनकल्याण कार्यक्रमों को डायरेक्ट कैश ट्रांसफर से जोड़ा जाएगा. सारी सब्सिडी ख़त्म कर दी जाएगी और उसके बदले वह पैसा सीधे लोगों के बैंक एकाउंट में डाल दिया जाएगा. उन्होंने यह भी बताया कि मीडिया चीखता-चिल्लाता रह जाएगा, एक्सपर्ट बोलते रह जाएंगे कि यह देश की आर्थिक व्यवस्था के लिए ख़तरनाक साबित होगा, लेकिन कांग्रेस पार्टी चुनाव जीत जाएगी. हालांकि, ये योजनाएं तो फूलप्रूफ थीं, इसमें कोई शक नहीं कि अगर सरकार इन योजनाओं पर अमल करती और इन्हें लागू कर देती, तो कांग्रेस की हालत आज कुछ और होती. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ. जो मंत्री इन योजनाओं को लागू करने के लिए ज़िम्मेदार थे, वे आज चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. उन्होंने चुनाव न लड़ने का ़फैसला किया है. इसलिए यह सवाल पूछना लाज़िमी है कि क्या यूपीए सरकार के इन मंत्रियों ने किसी साज़िश के तहत इन योजनाओं को लागू नहीं किया? कहीं ऐसा तो नहीं कि यूपीए सरकार के मंत्री पिछले दो-तीन सालों से सोनिया गांधी और राहुल गांधी को सब्जबाग दिखाते रहे, यह भरोसा दिलाते रहे कि कांग्रेस इन नीतियों की वजह से आसानी से चुनाव जीत जाएगी? और जब मौक़ा आया, तो मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए. कहीं ऐसा तो नहीं कि मनमोहन सिंह ने इस योजनाओं को अधर में लटका दिया, क्योंकि उन्हें मालूम हो गया कि प्रधानमंत्री के रूप में यह उनकी आख़िरी पारी है. इसके अलावा, क्या कांग्रेस पार्टी में एक ऐसा गुट तैयार हो चुका है, जो राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहता है?
सरकार की नाकामी और उसके ख़िलाफ़ लोगों की नाराज़गी थी. ऐसे में राहुल गांधी के लिए जो रणनीति चाहिए थी, वह विदेशी कंपनियां नहीं बना सकीं. वहीं दूसरी तरफ़ राहुल गांधी से यह ग़लती हुई कि वह पिछले पांच सालों से संगठन मजबूत करना है, संगठन मजबूत करना है, की रट ही लगाते रह गए. नतीजा यह निकला कि वह न तो संगठन मजबूत कर सके और न ही चुनाव जीत सके. राहुल गांधी एवं उनकी टीम की देखरेख में जिन-जिन राज्यों में चुनाव हुए, वहां कांग्रेस को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. बिहार और उत्तर प्रदेश की हार ने राहुल की नेतृत्व क्षमता पर सवाल खड़ा कर दिया, लेकिन हाल में हुए विधानसभा चुनावों में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और दिल्ली में मिली जबरदस्त हार ने यह साबित कर दिया कि राहुल गांधी में नेतृत्व क्षमता नहीं है. यही वजह है कि देश का युवा वर्ग यह मानता है कि राहुल गांधी एक असफल व्यक्ति हैं, जो अपने परिवार के साये में राजनीति के इस मुकाम तक पहुंचे हैं. राहुल गांधी 43 साल के हो चुके हैं. युवा भी नहीं रहे, लेकिन राहुल गांधी के पास अपनी योग्यता और दर्शन को साबित करने के लिए कोई सुबूत नहीं है. लोगों को बताने के लिए राहुल के पास उनकी सफलता की कोई कहानी नहीं है. इतने सालों तक लोकसभा में रहने के बावजूद उनका एक भी भाषण ऐसा नहीं है, जिसे लोग याद कर सकें. हां, कभी-कभी जब उनकी जुबान फिसलती है, तो वह वीडियो सोशल मीडिया और इंटरनेट पर काफी पॉपुलर हो जाता है. वैसे कांग्रेस पार्टी के नेताओं और राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी की वैवाहिक स्थिति पर राजनीति करके यह संकेत दे दिया है कि कांग्रेस चुनाव से पहले ही हार चुकी है.
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