Tuesday 4 February 2014

कोयले का दाग़ नहीं धुलेगा

मनमोहन सिंह को बचाने के लिए सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी. यह जरा हास्यास्पद है, लेकिन फिर भी जानना ज़रूरी है कि जब सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कड़ा रुख अपनाया, तो मनमोहन सिंह सरकार ने कहा कि फाइलें गायब हो गईं. अब पता नहीं कि फाइलें गायब हुई थीं या फिर गायब कर दी गई थीं. सुप्रीम कोर्ट के रवैये की वजह से कोयला मंत्री ने फाइलें ढूंढने के लिए टीम बनाई और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने मामला सीबीआई को सौंपने का निर्देश दिया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के जजों को यह बात समझ में आ गई थी कि फाइलें गायब नहीं हुईं, बल्कि गायब कर दी गई हैं. इसलिए तीनों जजों ने एकमत होकर सरकार को चेतावनी दी है कि आप इस तरह दस्तावेजों पर नहीं बैठ सकते. सीबीआई की जांच के लिए जो दस्तावेज ज़रूरी हैं, उन्हें उपलब्ध कराना होगा.
koyla
अब तो साफ़ हो गया है कि कोयला घोटाले में सरकार की तरफ़ से गलतियां हुईं, क्योंकि अब केंद्र सरकार ने ही सुप्रीम कोर्ट में माना है कि कोल ब्लॉक आवंटन में गलतियां हुई हैं और कुछ न कुछ गलतियां ज़रूर हुई हैं. अटॉनी जनरल के इस बयान के बाद कांग्रेस पार्टी में हड़कंप मच गया और इतना दबाव बढ़ गया कि उन्हें अगले दिन अपने ही बयान से पलटने को मजबूर होना पड़ा. सोचने वाली बात यह है कि कोयला घोटाले के मामले में सरकार का पक्ष रखने वाले अटॉर्नी जनरल जीई वाहनवती अब तक यही कहते आए हैं कि कोयला ब्लॉक आवंटन में कुछ भी गलत नहीं हुआ है. अब सवाल यह है कि क्या गलतियां हुईं, किसने गलतियां कीं, इस घोटाले के लिए कौन ज़िम्मेदार है और क्या इसके लिए किसी को सजा मिलेगी या नहीं?
यह सवाल इसलिए पूछना ज़रूरी है, क्योंकि जब कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री का नाम आया, तब कांग्रेस पार्टी और सरकार इमोशनल हो गई. पार्टी ने कहा कि मनमोहन सिंह जैसे ईमानदार व्यक्ति की निष्ठा पर सवाल उठाना एक मजाक है. वहीं मनमोहन सिंह ने एक आदर्शवादी स्टैंड लिया और कहा कि कोयला घोटाले में शक की सुई भी उन पर उठी या जरा भी शक हुआ, तो वह सार्वजनिक जीवन से संन्यास ले लेंगे. मनमोहन सिंह का नाम कोयला घोटाले से इसलिए जुड़ा, क्योंकि 2006 से 2009 तक प्रधानमंत्री के पास ही कोयला मंत्रालय था और यही वह कालखंड है, जब सबसे ज़्यादा कोयला खदानों का आवंटन किया गया था. एक तरफ़ ऐसे बयान दिए गए, लेकिन दूसरी तरफ़ उन्हें बचाने के लिए सरकार ने सारी सीमाएं लांघ दीं. सरकार ने कोयला घोटाले को सिरे से नकार दिया. कांग्रेस के कई बड़े वकील-टर्न-नेताओं ने तो सीएजी और सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों पर ही सवाल खड़ा कर दिया. ऐसे बड़बोले नेताओं का तर्क यह था कि सरकार के नीतिगत ़फैसले को चुनौती नहीं दी जा सकती. आज स्थिति यह है कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपनी गलती मान ली है, लेकिन किसी ने सार्वजनिक जीवन से न तो संन्यास लिया और न ही किसी ने माफी मांगी.
कोयला घोटाले की कहानी की शुरुआत 29 अप्रैल, 2011 से हुई, जब चौथी दुनिया ने सबसे पहले इस घोटाले का पर्दाफाश किया था. हमने यह दावा किया था कि यूपीए सरकार ने देश और संसद को गुमराह करके 26 लाख करोड़ रुपये के कोयले का बंदरबांट कर दिया. उस वक्त न तो सरकार ने इस पर ध्यान दिया और न ही विपक्षी पार्टियों ने इस मुद्दे को उठाया, जबकि भारतीय जनता पार्टी और वाममोर्चा के कई नेताओं को इस घोटाले के बारे में पूरी जानकारी थी. राजनीतिक दलों ने इस मसले को नहीं उठाया, लेकिन सीएजी की नज़रों से यह घोटाला नहीं बच पाया. सीएजी ने कोयला आवंटन के सारे मामलों की जांच की और अपनी रिपोर्ट दी, तो बवंडर मच गया. सीएजी 2जी घोटाले में अपने अनुमान को लेकर सवालों के घेरे में आई थी. कोयला घोटाले में सीएजी ने कोयले की बंदरबांट के मूल्यांकन में काफी कंजूसी बरती और कहा कि यह घोटाला 1.86 लाख करोड़ रुपये का है. चौथी दुनिया का आज भी दावा है और हमारे पास यह सुबूत है कि यह घोटाला 26 लाख करोड़ रुपये का है.
प्रधानमंत्री कार्यालय आरोपों के जवाब तलाशने में जुट गया. घोटाले की जांच की जगह दलीलें और बयान देकर मामले को निपटाने की कोशिश की गई. ठीक उसी तरह, जिस तरह 2-जी स्पैक्ट्रम घोटाले के खुलासे के बाद प्रधानमंत्री ने की थी, संसद के अंदर और संसद के बाहर इसी तरह से ए राजा के बचाव में बयान दिए थे. जब मामला कोर्ट पहुंचा, तो सरकार के चेहरे से नकाब उतर गया. प्रधानमंत्री ने अभी तक देश को यह नहीं बताया कि तीन सालों तक उन्होंने ए राजा का क्यों बचाव किया. वैसे राजनीति में नैतिकता के लिए कोई जगह बची ही नहीं है, वर्ना राजनीतिक मर्यादा जिंदा होती, तो 2-जी घोटाले में कई लोग स्वयं ही इस्तीफा दे देते और किसी को बयानबाजी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. एक बार फिर देश ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहां हर दस्तावेज, हर रिपोर्ट और हर ज़िम्मेदार एजेंसी देश के सबसे बड़े घोटाले की ओर इशारा करते हैं.
अब तो यह कहने की भी ज़रूरत नहीं है कि कोयला घोटाले में शक की सुई सीधे प्रधानमंत्री पर जा टिकती है, क्योंकि कोयला खदानों की बंदरबांट सबसे ज़्यादा उस वक्त हुई, जब कोयला मंत्री स्वयं प्रधानमंत्री थे. सबसे पहले सरकार की तरफ़ से यह दलील दी गई कि कोयला खदानों के आवंटन का मकसद पैसा उगाहना नहीं, बल्कि अर्थव्यवस्था की विकास दर तेज करना था. अब कांग्रेस के नेताओं को बताना चाहिए कि दो सालों से वे देश की जनता को क्यों गुमराह करते रहे और अब जबकि सरकार ने गलती मान ली है, तो क्या कोयला घोटाले के लिए कोई ज़िम्मेदारी लेगा या नहीं? दूसरा यह है कि कोयला खदानों को देश में मूलभूत सुविधाएं जुटाने और विकास के लिए आवंटित किया गया था. आवंटन स़िर्फ ऐसी कंपनियों को किया जाना था, जिनका रिश्ता स्टील, बिजली और सीमेंट से है. अब जबकि यह पता चल गया है कि कोयला आवंटन ऐसी-ऐसी कंपनियों को हुआ, जो इसके लिए योग्य नहीं थीं. तो क्या आवंटन करने वाले मनमोहन सिंह पर कोई कार्रवाई नहीं होनी चाहिए?
सरकार के मंत्रियों और कांग्रेस के नेताओं ने लोगों को यह कहकर भी गुमराह किया था कि कोयला खदानों का आवंटन मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ एवं पश्‍चिम बंगाल की राज्य सरकारों की सहमति से किया गया था. मामले को राजनीतिक जामा पहनाने के लिए मीडिया में भाजपा शासित मुख्यमंत्रियों के पत्रों को भी लीक किया गया. सुप्रीम कोर्ट में अब यह साफ़ हो चुका है कि कोयला खदानों के आवंटन पर पूरी तरह से केंद्र का नियंत्रण है और आख़िरी ़फैसला केंद्र के कोयला मंत्री ही लेते हैं. कोयला घोटाले में जिन आवंटनों पर सवाल उठ रहे हैं, उन्हें आवंटित मनमोहन सिंह ने अपने दस्तखत से किया है. मनमोहन सिंह को बचाने के लिए सरकार ने कोई कसर नहीं छोड़ी. यह जरा हास्यास्पद है, लेकिन फिर भी जानना ज़रूरी है कि जब सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कड़ा रुख अपनाया, तो मनमोहन सिंह सरकार ने कहा कि फाइलें गायब हो गईं. अब पता नहीं कि फाइलें गायब हुई थीं या फिर गायब कर दी गई थीं. सुप्रीम कोर्ट के रवैये की वजह से कोयला मंत्री ने फाइलें ढूंढने के लिए टीम बनाई और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने मामला सीबीआई को सौंपने का निर्देश दिया. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के जजों को यह बात समझ में आ गई थी कि फाइलें गायब नहीं हुईं, बल्कि गायब कर दी गई हैं. इसलिए तीनों जजों ने एकमत होकर सरकार को चेतावनी दी है कि आप इस तरह दस्तावेजों पर नहीं बैठ सकते. सीबीआई की जांच के लिए जो दस्तावेज ज़रूरी हैं, उन्हें उपलब्ध कराना होगा. उन दस्तावेजों को न देने का कोई तर्क नहीं है. अगर ऐसा नहीं कर सकते, तो सीबीआई के पास मुकदमा दर्ज कराना पड़ेगा. कोर्ट ने सरकार के वकील अटॉर्नी जनरल वाहनवती को यह भी चेतावनी दी है कि इसे ऐसे नहीं छोड़ा जा सकता है. हैरानी की बात यह है कि अदालत की फटकार के बाद गायब हुईं फाइलें खुद-ब-खुद सामने आ गईं.
वैसे प्रधानमंत्री को बचाने की कोशिश पहले भी हुई है. 26 अप्रैल, 2013 को सीबीआई डायरेक्टर रंजीत सिन्हा ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दिया. इसमें सीबीआई ने बताया कि कोयला घोटाले की जांच की स्टेटस रिपोर्ट सरकारी नुमाइंदों के सामने 8 मार्च, 2013 को प्रस्तुत की गई थी. ये महानुभाव थे क़ानून मंत्री अश्‍विनी कुमार, प्रधानमंत्री कार्यालय के एक ज्वॉइंट सेक्रेटरी और कोयला मंत्रालय के ज्वॉइंट सेक्रेटरी. हैरानी की बात यह है कि इससे पहले सरकार और सीबीआई की तरफ़ से कहा गया था कि स्टेटस रिपोर्ट किसी को दिखाई नहीं गई है. देश के अटॉर्नी जनरल वाहनवती ने कोर्ट के सामने यह झूठ बोला था कि स्टेटस रिपोर्ट किसी ने नहीं देखी है, लेकिन सरकार के झूठ का पर्दाफाश हो गया. अगर कोई यह कहे कि प्रधानमंत्री को इसके बारे में जानकारी नहीं थी, तो इसे एक मजाक ही समझा जाएगा. अगर किसी प्लानिंग के तहत उस अधिकारी को इस मीटिंग में नहीं भेजा गया, तो उसके ख़िलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई? हैरानी की बात तो यह है कि सीबीआई ने स्टेटस रिपोर्ट को प्रधानमंत्री के चहेते क़ानून मंत्री, कोयला मंत्रालय एवं पीएमओ के अधिकारियों को स़िर्फ दिखाया ही नहीं, बल्कि रिपोर्ट को बदल भी दिया. 29 अप्रैल, 2013 को सुप्रीम कोर्ट के सामने सीबीआई ने इस बात को माना कि उसकी ओरिजिनल रिपोर्ट में 20 फ़ीसद बदलाव किए गए हैं. मतलब साफ़ है कि सरकार कोयला घोटाले में कोर्ट में झूठ बोलती आई है.
यह मामला स़िर्फ कोयला खदानों के ग़ैरक़ानूनी आवंटन का नहीं है, बल्कि यह संसद और देश की जनता से झूठ बोलने का भी मामला है. सरकार ने संसद में यह वादा किया था कि माइंस और मिनरल (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट 1957 में संशोधन किया जाएगा और तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी. 2006 में यह बिल राज्यसभा में पेश किया गया और यह माना गया कि जब तक दोनों सदन इसे मंजूरी नहीं दे देते और यह बिल पास नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी, लेकिन यह विधेयक चार साल तक लोकसभा में जानबूझ कर लंबित रखा गया और 2010 में ही यह क़ानून में तब्दील हो पाया. इस दरम्यान संसद में किए गए वादे से सरकार मुकर गई और कोयले के ब्लॉक बांटने का गोरखधंधा चलता रहा. इसके साथ-साथ यह मामला सरकारी नियमों के उल्लंघन का भी है. नियमों के मुताबिक, जिन खदानों में कोयले का खनन सतह के नीचे होना है, उनमें आवंटन के 36 माह बाद (और यदि वन क्षेत्र में ऐसी खदान है, तो यह अवधि छह महीने बढ़ा दी जाती है) खनन प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए. यदि खदान ओपन कास्ट किस्म की है, तो यह अवधि 48 माह की होती है (जिसमें अगर वन क्षेत्र हो, तो पहले की तरह ही छह महीने की छूट मिलती है). अगर इस अवधि में काम शुरू नहीं होता है, तो खदान मालिक का लाइसेंस रद्द कर दिया जाता है. हैरानी की बात यह है कि ज़्यादातर खदानों से कभी कोयला निकाला ही नहीं गया. तो सवाल यह है कि नियमों के उल्लंघन पर इन कंपनियों के ख़िलाफ मनमोहन सिंह ने एक्शन क्यों नहीं लिया? दोषी कंपनियों के लाइसेंस क्यों रद्द नहीं किए गए? मनमोहन सिंह की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कोई अनोखी बात नहीं कही, बल्कि सच कबूल किया है. देखना यह है कि अब मनमोहन सिंह अपने वादे से मुकरते हैं या फिर उसे कबूल करते हुए सार्वजनिक जीवन से संन्यास लेते हैं, क्योंकि अब तो शक की सुई ही नहीं, बल्कि सारे सुबूत मनमोहन सिंह के ख़िलाफ खड़े हो गए हैं.
- See more at: http://www.chauthiduniya.com/2014/01/koyle-ka-daag-ni-dhulega.html#sthash.fWDWd0In.dpuf

नीति और नीयत साफ़ नहीं है

वैचारिक विरोधाभास किसी भी राजनीतिक दल की सेहत के लिए अच्छा नहीं होता है. ऐसी पार्टियां समाज को नेतृत्व नहीं दे सकतीं, समस्याओं का निदान नहीं कर सकतीं. आम आदमी पार्टी की समस्या यह है कि इसका आधार ही विरोधाभास से ग्रसित है. यही वजह है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बने एक महीना भी नहीं बीता और केजरीवाल के साथ-साथ पूरी पार्टी की टाय-टाय फिस्स हो गई. पार्टी की नीति और नीयत, दोनों उजागर हो गईं. नेताओं की अज्ञानता और अनुभवहीनता लोगों के सामने आ गई. झूठे वायदों का पर्दाफाश हो गया. पार्टी के मतभेद सड़क पर आ गए. सरकार और पुलिस के बीच चिंताजनक मतभेद ने लोगों को निराश किया. सवाल यह है कि आख़िर आम आदमी पार्टी, जिसकी जय-जयकार पूरे देश में हो रही थी, एक ही महीने में लोगों की नज़रों में कैसे गिर गई और लोगों का भरोसा क्यों टूट गया?  दिल्ली में सरकार बनने के बाद आम आदमी पार्टी ने पहले पंद्रह दिनों में स़िर्फ एक नीतिगत फैसला लिया और वह था खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश पर. इस फैसले की मीडिया में काफी भर्त्सना हुई, लेकिन आश्‍चर्य इस बात से हुआ कि आम आदमी पार्टी से भी विरोध के स्वर सुनाई दिए. अरविंद केजरीवाल ने कहा कि दिल्ली में खुदरा बाज़ार में विदेशी निवेश नहीं होगा. बाज़ार समर्थक अर्थशास्त्रियों ने इस फैसले को गलत बताया, लेकिन आश्‍चर्य तब हुआ, जब कैप्टन गोपीनाथ ने इस फैसले का विरोध किया, तो नजारा बदल गया. इससे यह साबित हो गया कि पार्टी की कोई विचारधारा नहीं है. पार्टी में मुद्दे को लेकर एकराय नहीं है. हास्यास्पद घटना तो एक टीवी बहस में हुई, जब कैप्टन गोपीनाथ और पार्टी के सबसे नए प्रवक्ता आशुतोष इस मुद्दे पर आपस में भिड़ गए. आशुतोष ने यहां तक कह दिया कि पार्टी का मैनिफेस्टो पढ़े बिना किसी को पार्टी ज्वाइन नहीं करना चाहिए. वैसे सदस्यता अभियान की घोषणा करने से पहले तो यह बताया नहीं गया था. यूं भी पार्टी का मैनिफेस्टो तो दिल्ली के लिए था… मुंबई वालों को दिल्ली के मैनिफेस्टो से क्या लेना-देना? आप की विचारधारा तो उसकी वेबसाइट पर होनी चाहिए, लेकिन वह वहां नहीं है. लेकिन इसी बहस के दौरान जब किरण बेदी ने आशुतोष के उस बयान को सामने रखा, जिसमें उन्होंने विदेशी निवेश का विरोध करने वालों को मूर्ख बताया था, तब आशुतोष पूरी तरह से बेनकाब हो गए. दरअसल, जबसे सरकार बनी है, तबसे आम आदमी पार्टी एक न एक वैचारिक मुद्दे में उलझती गई और हर बार यही सिद्ध होता गया कि आम आदमी पार्टी का आधार न तो कोई समग्र विचारधारा है और न ही कोई नीति है. यह सचमुच हैरानी की बात है कि एक पार्टी, जो देश की सत्ता पर काबिज होने का लालच तो रखती है, लेकिन उसके पास न विचारधारा है, न आर्थिक नीति है, न विदेश नीति है, न सुरक्षा नीति है, न उद्योग नीति है, न कृषि नीति है और न ही महंगाई, बेरोज़गारी, अशिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी समस्याओं से निपटने का कोई ब्लूप्रिंट है. दरअसल, इस पार्टी की दृष्टि ही संकुचित है. यह पार्टी देश की समस्याएं सामने लाने को ही विचारधारा समझती है. यही वजह है कि जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, आम आदमी पार्टी एक्सपोज होती जा रही है. वैसे अरविंद केजरीवाल बड़ी-बड़ी बातें कहकर लोगों को झांसा देते आए हैं. वह ऐसी बातें कहते हैं, जिनका न तो सिर है, न पैर. अरविंद केजरीवाल देश में व्यवस्था परिवर्तन की बातें करते हैं. वैसे संविधान निर्माताओं ने भारत की विशालता और जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए भारत को एक रिप्रेजेंटेटिव डेमोक्रेसी यानी प्रतिनिधि प्रजातंत्र बनाया था, जिसमें लोग अपने प्रतिनिधि चुनते हैं और वही जनता की ओर से ़फैसले लेते हैं. इसमें कई कमियां ज़रूर हैं, जिन्हें दुरुस्त करने की ज़रूरत है, लेकिन अरविंद केजरीवाल के दिमाग में कुछ और ही है. वह भारत को डायरेक्ट डेमोक्रेसी यानी सहभागी प्रजातंत्र में तब्दील करना चाहते हैं. इस व्यवस्था में सरकार के हर ़फैसले में जनता की राय ज़रूरी है. इसीलिए सरकार को सीधे जनता के बीच ले जाना, जनता द्वारा ही नीतियां बनाना एवं जनता से पूछकर सरकार चलाना जैसी बातें अरविंद केजरीवाल करते हैं. इसी बात को साबित करने के लिए अरविंद केजरीवाल ने जनता दरबार सड़क पर बुलाया, लेकिन जब जनता आई, तो अरविंद केजरीवाल के व्यवस्था परिवर्तन के नज़रिए पर सवाल खड़ा हो गया, वहां भगदड़ मच गई और जनता दरबार में भगदड़ के डर से भागने वाले सबसे पहले स्वयं अरविंद केजरीवाल थे. लेकिन जब वह सचिवालय की छत से लोगों से मुखातिब हुए, तो वह चिल्ला- चिल्लाकर जनता दरबार को जन अदालत कहते नज़र आए. यह बड़ा ही हास्यास्पद है, क्योंकि मुख्यमंत्री अदालत नहीं लगा सकते. वैसे देश में जन अदालत लगती है, जहां ग़ैरक़ानूनी तरीके से इंसाफ दिया जाता है, थप्पड़ मारने से लेकर मौत तक का फरमान सुनाया जाता है और ऐसी जन अदालत देश में नक्सली लगाते हैं. हैरानी की बात यह है कि देश की सबसे ईमानदार पार्टी के पहले कार्यक्रम में ही कई महिलाओं के साथ छेड़छाड़ हुई, वे टीवी चैनलों पर रो-रोकर अपनी व्यथा सुना रही थीं. कई लोगों के फोन गायब हो गए और उन्हें पता नहीं चला. साथ ही कई लोगों के बटुए भी पॉकेटमारों ने गायब कर दिए. फिलहाल इन मामलों में पुलिस ने शिकायत तो ले ली है. इस बीच पार्टी ने लोकसभा चुनाव में हिस्सा लेने का ऐलान किया. साथ ही 26 जनवरी तक एक करोड़ सदस्य बनाने का लक्ष्य रखा. फॉर्म भरकर सदस्यता, पोस्टकार्ड से सदस्यता, ईमेल से सदस्यता, फेसबुक पर सदस्यता, वेबसाइट पर जाकर सदस्यता, यहां तक कि फोन से मिस्डकॉल मारकर सदस्यता के प्रावधान तैयार किए गए. मीडिया के जरिए बड़े-बड़े लोगों ने आम आदमी पार्टी को ज्वाइन किया. जब आपने सब तरह के लोगों के लिए दरवाजा खोल दिया, तो यह कैसे तय होगा कि आम आदमी पार्टी में शामिल होने वाले लोग भ्रष्ट, बलात्कारी, गुंडे-बदमाश नहीं हैं. पटना से ख़बर आई कि वहां जो व्यक्ति सदस्यता अभियान चला रहा है, वह एक हिस्ट्रीशीटर है और उस पर 24 आपराधिक मामले दर्ज हैं. कहने का मतलब यह है कि लोकसभा चुनाव में ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने के लिए आप ने अच्छे-बुरे और सही-गलत का अंतर ख़त्म कर दिया. इसका खामियाजा आने वाले दिनों में पार्टी को ज़रूर भुगतना पड़ेगा. आम आदमी पार्टी के एक विधायक ने जब बगावत की, तो हड़कंप मच गया. मीडिया के जरिए यह बताने की कोशिश की गई कि बगावत कर रहे विधायक विनोद कुमार बिन्नी लोकसभा का टिकट मांग रहे थे. वह लालची हैं, स्वार्थी हैं और पहले भी ऐसी हरकत कर चुके हैं, जब वह मंत्री पद मांग रहे थे. फिर पार्टी की तरफ़ से यह भी दलील दी गई कि वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं, कांग्रेस की साजिश का हिस्सा बन गए हैं. कहने का मतलब यह है कि एक साधारण-सा एमएलए थोड़ा नाराज क्या हुआ, पार्टी के महान नेताओं से लेकर सोशल मीडिया पर काम करने वाले आम आदमी पार्टी के वेतनभोगी कार्यकर्ता तक बिन्नी पर ऐसे टूट पड़े, जैसे उसने किसी की हत्या कर दी, दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी हो गया. कश्मीर के मुद्दे पर पार्टी फिर बैकफुट पर आ गई. एक टीवी चैनल पर प्रशांत भूषण ने कश्मीर पर विवादास्पद बयान दिया. वह पहले भी कश्मीर पर बयान देकर विवाद खड़ा कर चुके हैं. अब यह समझ के बाहर है कि यह कोई रणनीति है या आदत, लेकिन समय-समय पर वह कश्मीर की बात छेड़कर हंगामा खड़ा कर देते हैं. पहले उन्होंने कश्मीर में रेफेरेंडम की बात की और कहा था कि अगर कश्मीर के लोग भारत से अलग होना चाहते हैं, तो उन्हें अलग होने का अधिकार है. इस बार उन्होंने कहा कि कश्मीर के अंदर सुरक्षा में लगी सेना के लिए रेफेरेंडम होना चाहिए. पार्टी को फिर सफाई देनी पड़ी. लेकिन जो सफाई आई, उसमें भी घालमेल किया गया. लेकिन हैरानी तो तब हुई, जब पार्टी में जेएनयू के प्रोफेसर कमल मित्र चेनॉय को शामिल किया गया. तो अब पार्टी को यह जवाब देना चाहिए कि क्या वह संसद पर हमला करने वाले आतंकी अफजल गुरु को शहीद एवं निर्दोष इसलिए मानती है, क्योंकि प्रोफेसर कमल मित्र चेनॉय संसद पर हमला करने वाले आतंकी अफजल गुरु को शहीद और निर्दोष मानते हैं. वह कश्मीर के अलगाववादियों के समर्थक हैं और ट्वीटर के जरिए अलगाववादियों को आपस में लड़ने से मना करते हैं और एकजुट होकर भारत के ख़िलाफ लड़ने की सलाह देते हैं. इसके अलावा, हाल में वह सुर्खियों में तब आए थे, जब पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के मिस्टर फाई के नेटवर्क का खुलासा हुआ था. पता चला कि वह मिस्टर फाई के सेमिनारों में शिरकत करते रहे हैं. इसके अलावा कामरेड कमल मित्र ने अमेरिकी कांग्रेस की कमेटी में गुजरात के दंगों के बारे में यह बताया कि गुजरात में जो हुआ, वह दंगा नहीं, बल्कि जनसंहार था…स्टेट स्पोंसर्ड जेनोसाइड. समझने वाली बात यह है कि आम आदमी पार्टी में शामिल होने के बाद उन्होंने यह भी बयान दिया है कि वह अपने विचारों पर आज भी अडिग हैं. एक तरफ़ कमल मित्र चेनॉय हैं, तो दूसरी तरफ़ कुमार विश्‍वास हैं, जो नरेंद्र मोदी को भगवान शिव की संज्ञा देते हैं. इंटरनेट पर मौजूद तमाम वीडियो में कुमार विश्‍वास कवि सम्मेलनों में अक्सर मोदी की तारीफ़ करते नज़र आते हैं. यह कैसे संभव है कि एक ही पार्टी में कुमार विश्‍वास भी रहें और कमल मित्र चेनॉय भी? ऐसा लगता है कि आम आदमी पार्टी के नेता और कार्यकर्ता फिल्मों को ज़रूरत से ज़्यादा ही सच मान बैठे हैं. चुनाव के दौरान भी इस पार्टी के लोग अनिल कपूर की फिल्म नायक का पोस्टर लोगों को दिखाते थे. कुमार विश्‍वास इस फिल्म का हवाला भी देते थे कि अरविंद केजरीवाल फिल्म नायक के अनिल कपूर की तरह हैं. इसलिए जब सरकार बनी, तो आम आदमी पार्टी के नेता एवं मंत्री बैटमैन और सुपरमैन और हिंदी फिल्म के शहंशाह की तरह रातों में दिल्ली की सड़कों पर निरीक्षण करते नज़र आते हैं. मीडिया और टीवी चैनलों को पहले से बता दिया जाता है कि मंत्री जी आज रात किस वक्त कहां रहेंगे. मंत्रियों के इसी फिल्मी अंदाज की वजह से दिल्ली सरकार के क़ानून मंत्री सोमनाथ भारती दिल्ली पुलिस से ही उलझ गए. उन्होंने ऐसा ड्रामा किया कि पार्टी की चौतरफ़ा किरकिरी हुई. मंत्री जी को यह भी पता नहीं है कि विदेशी महिलाओं को वेश्या और ड्रग एडिक्ट कहने से पहले थोड़ा संयम ज़रूरी है. वैसे एक जज द्वारा इस मामले की जांच चल रही है, लेकिन सोमनाथ भारती इससे पहले भी एक विवाद में आ चुके हैं. सोमनाथ भारती पेशे से वकील हैं. वह अरविंद केजरीवाल के सारे मुकदमे लड़ते हैं. अब पता नहीं कि यह किस तरह की पारदर्शी और आदर्शवादी राजनीति है, लेकिन आम आदमी पार्टी के लोग इसे पार्टी के अंदर गुटबाजी और भाई-भतीजावाद का संकेत बताते हैं और कहते हैं कि इसी वजह से इन्हें पार्टी का टिकट मिला और बाद में मंत्री भी बने. क़ानून मंत्री बनने के साथ ही उनका झगड़ा अपने सचिव से हो गया. मुद्दा यह था कि मंत्री ने दिल्ली के जजों को मीटिंग के लिए बुलाने के आदेश दे दिए, लेकिन जब सचिव ने बताया कि क़ानून मंत्री को जजों को बुलाने का अधिकार नहीं है, तो वह आगबबूला हो गए. सचिव ने जब शिकायत की और मीडिया में सवाल उठा, तो यह कहा गया कि नए-नए मंत्री बने हैं, उन्हें पता नहीं होगा. लेकिन दूसरा मुद्दा जब सामने आया, तो लोगों के रोंगटे खड़े हो गए. पता चला कि सुबूतों के साथ गंभीर छेड़छाड़ के लिए अदालत क़ानून मंत्री सोमनाथ भारती को फटकार लगा चुकी है. अरविंद केजरीवाल को यह बताना चाहिए कि क्या वह ऐसे ही लोगों को साथ लेकर ईमानदारी की राजनीति करना चाहते हैं, लेकिन उस वक्त अरविंद केजरीवाल के चेहरे से भी नकाब उतर गया, जब उन्होंने भारती के इस मामले में कोर्ट को दोषी बता दिया. किसी भी मुख्यमंत्री के मुंह से अदालत के बारे में ऐसा बयान निकले, तो यह एक ख़तरनाक संकेत है. पार्टी के अंदर भी अब सवाल उठने लगे हैं. लोग योगेंद्र यादव से नाराज हैं. योगेंद्र यादव जनलोकपाल आंदोलन के दौरान अन्ना के साथ नहीं थे. उनकी पहचान यह थी कि वह 2009 से राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु रहे हैं. कांग्रेस पार्टी ने ही उन्हें यूजीसी का सदस्य बनाया था. जबसे वह पार्टी में आए और जिस तरह से नीति निर्धारण के मुख्य केंद्र बन गए, उससे पुराने लोगों के अंदर घुटन हो रही है. वैसे पार्टी के अंदर वही होता है, जो अरविंद केजरीवाल चाहते हैं. पार्टी से जुड़े कई लोग उन्हें तानाशाह कहते हैं. वह पार्टी के अंदर तीन-चार लोगों की कोटरी के जरिए ़फैसले लेते हैं. दिल्ली में सरकार है, विधायक हैं, लेकिन पार्टी और सरकार के ़फैसले में विधायकों की हिस्सेदारी न के बराबर है. कई लोग दबी जुबान से कहते हैं कि योगेंद्र यादव और दूसरे लोग यदि प्रजातंत्र में इतना ही विश्‍वास रखते हैं, तो पार्टी की 23 एक्जीक्यूटिव समितियों का चयन चुनाव के जरिए क्यों नहीं किया गया? आम आदमी पार्टी के कई लोगों ने कहा कि फिलहाल सबके सामने दिल्ली और लोकसभा की चुनौती है, इसलिए कोई खुलकर विरोध नहीं करना चाहता है, वरना पार्टी में कभी भी विस्फोटक स्थिति पैदा हो सकती है, लेकिन यह पता नहीं था कि ऐसी स्थिति सरकार बनने के ठीक 15 दिनों में ही आ जाएगी. आम आदमी पार्टी के एक विधायक ने जब बगावत की, तो हड़कंप मच गया. मीडिया के जरिए यह बताने की कोशिश की गई कि बगावत कर रहे विधायक विनोद कुमार बिन्नी लोकसभा का टिकट मांग रहे थे. वह लालची हैं, स्वार्थी हैं और पहले भी ऐसी हरकत कर चुके हैं, जब वह मंत्री पद मांग रहे थे. फिर पार्टी की तरफ़ से यह भी दलील दी गई कि वह भाजपा की भाषा बोल रहे हैं, कांग्रेस की साजिश का हिस्सा बन गए हैं. कहने का मतलब यह है कि एक साधारण-सा एमएलए थोड़ा नाराज क्या हुआ, पार्टी के महान नेताओं से लेकर सोशल मीडिया पर काम करने वाले आम आदमी पार्टी के वेतनभोगी कार्यकर्ता तक बिन्नी पर ऐसे टूट पड़े, जैसे उसने किसी की हत्या कर दी, दुनिया का सबसे बड़ा अपराधी हो गया. जबकि बड़ी आसानी और शालीनता से बिन्नी का मसला सुलझाया जा सकता था. बुद्धि और तजुर्बा किसी यूनिवर्सिटी में नहीं पढ़ाया जा सकता, इसके लिए विवेक होना ज़रूरी है, जिसकी फिलहाल आम आदमी पार्टी में कमी नज़र आ रही है. हिंदुस्तान में ऐसी कौन-सी पार्टी है, जिसमें कोई नेता या विधायक या सांसद ने बगावत न की हो, लेकिन ऐसी किरकिरी किसी पार्टी की नहीं होती. विधायक बिन्नी ने पार्टी के ख़िलाफ आवाज़ बुलंद की. समझने वाली बात यह है कि बिन्नी ने उन्हीं मुद्दों को उठाया, जिन्हें लेकर दिल्ली के निवासी भी आम आदमी पार्टी को शक की निगाह से देख रहे थे. बिन्नी ने स़िर्फ यही कहा कि अरविंद केजरीवाल की कथनी और करनी में फर्क आ गया है, मैनिफेस्टो में कोई किंतु-परंतु नहीं था, यह सब चालाकी से किया गया है जिन लोगों के घर पर 400 यूनिट से ज़्यादा बिजली और 700 लीटर से ज़्यादा पानी का इस्तेमाल हो रहा है, उनका क्या दोष है? यह दिल्ली की जनता के साथ धोखा है. यह बिल्कुल सच ही है, क्योंकि मुफ्त पानी और बिजली की नीतियों से चंद लोगों को फायदा पहुंचाया गया और ज़्यादातर दिल्ली की जनता खुद को छला महसूस कर रही है. बिन्नी ने अरविंद केजरीवाल से पूछा कि 15 दिनों में जनलोकपाल बिल लाने के वायदे का क्या हुआ, क्योंकि समय बीत जाने के बाद भी जनलोकपाल नहीं आया है. अरविंद केजरीवाल को शायद यही बुरा लग गया. ग़ौरतलब है कि चौथी दुनिया ने चुनाव से पहले ही बता दिया था कि दिल्ली में जनलोकपाल का वायदा एक छलावा है, क्योंकि कोई भी राज्य सरकार जनलोकपाल क़ानून नहीं बना सकती और फिर दिल्ली सरकार की शक्तियां तो वैसे भी दूसरे राज्यों की तुलना में बेहद कम हैं, इसलिए यह संभव नहीं है. विनोद कुमार बिन्नी अपनी पार्टी के नेताओं की ड्रामेबाजी से भी नाराज थे. उन्हें लगता है कि सरकार चलाना और मीडिया के जरिए हंगामा खड़ा करना, दोनों अलग बात हैं. किसी भी ज़िम्मेदार सरकार को ड्रामेबाजी से बचना चाहिए. इसलिए उन्होंने यह खुलासा किया कि अरविंद केजरीवाल के मंत्री रात में दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में दौरा तो करते हैं, लेकिन साथ में मीडिया को बुलाकर लेकर जाते हैं. टीवी कैमरे के सामने वे अधिकारियों को फोन करते हैं और पुलिस से भिड़ जाते हैं. ऐसा करने की वजह समस्याओं का समाधान नहीं, बल्कि मीडिया में सुर्खियां बटोरना होता है, ताकि अगले दिन सुबह-सुबह वे टीवी चैनलों पर दिखें. समस्या यह है कि मीडिया की वजह से लोकप्रिय होने वाली पार्टी को यह लगता है कि टीवी कैमरे के जरिए ही राजनीति संभव है. जबकि हकीकत यह है कि जिन-जिन नेताओं को मीडिया ने बनाया, उन्हें जनता के सामने बेनकाब करने का काम भी इसी मीडिया ने किया. राजनीति में ज़्यादा दिन टिकने वाले नेता मीडिया को बुलाते नहीं, बल्कि मीडिया उनके पीछे चलता है और उन्हें ड्रामेबाजी करने की ज़रूरत नहीं पड़ती. आम आदमी पार्टी की किरकिरी तबसे ही शुरू हो गई, जबसे सरकार बनी. पार्टी ने कहा था कि चुनाव जीतने के बाद गाड़ी-बंगला नहीं लेंगे, लालबत्ती नहीं लेंगे. हम आम आदमी की तरह ही रहेंगे. आम आदमी पार्टी न तो भाजपा एवं कांग्रेस से समर्थन लेगी और न देगी, लेकिन जैसे ही सरकार बनी, अरविंद केजरीवाल बेनकाब हो गए. आम आदमी पार्टी ने वही सारे काम किए, जिनका वह चुनाव से पहले विरोध कर रही थी. आम आदमी पार्टी, दरअसल, व्यवस्था और राजनीतिक दलों के प्रति लोगों की नाराजगी का फायदा उठा रही है, लेकिन उसके पास लोगों की समस्याओं के निदान का कोई नक्शा नहीं है. समझने वाली बात यह है कि अगर देश के हर राज्य में मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त शिक्षा और मुफ्त चिकित्सा सुविधाओं की मांग को लेकर आंदोलन होने लगें, तो क्या होगा? इतना पैसा कहां से आएगा? देश की आर्थिक स्थिति पर इसका क्या प्रभाव होगा, इसके बारे में कौन सोचेगा? आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनाव लड़ने वाली है. पार्टी का दावा है कि वह लोकसभा चुनाव में 400 उम्मीदवारों को मैदान में उतारेगी. अब सवाल यह है कि अरविंद केजरीवाल अगर प्रधानमंत्री पद की दौड़ में कूदेंगे, तो दिल्ली का क्या होगा? दूसरी बात यह कि आम आदमी पार्टी को लोकसभा में बहुमत नहीं मिलेगा, इसलिए उन्हें यह बताना होगा कि चुनाव के बाद वह किस पार्टी को साथ देंगे? वह भाजपा के साथ जाएंगे या फिर कांग्रेस के? आम आदमी पार्टी को अपनी नीतियां और विचारधारा भी लोगों के सामने स्पष्टता से रखनी होंगी. सबसे बड़ा सवाल देश की जनता के सामने है कि क्या वह एक ऐसी पार्टी को समर्थन देगी, जिसके पास न विचारधारा है, न नीतियां हैं और यह भी पता नहीं है कि उसका एजेंडा क्या है? कहीं ऐसा न हो कि विधानसभा चुनाव के बाद जिस तरह दिल्ली की जनता ठगी सी महसूस कर रही है, लोकसभा चुनावों के बाद देश की जनता को अफसोस न करना प़डे. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2014/02/neeti-or-niyat-saaf-nahi-hai.html#sthash.zA4tzen8.dpuf

भारत बन गया दुनिया का सबसे भ्रष्ट प्रजातंत्र

मनमोहन सिंह के पहले जवाहर लाल नेहरू दस वर्षों से अधिक समय तक देश का प्रधानमंत्री रहने का गौरव हासिल हुआ. यह वह दौर था जब देश लोकतंत्र का ककहरा सीख ही रहा था, लेकिन जब मनमोहन सिंह के हाथ में देश की कमान आई तब तक भारत एक परिपक्व लोकतंत्र बन चुका था. मौजूदा सरकार इस अनुभवी लोकतंत्र से भी कुछ हासिल नहीं कर पाई.  यह मनमोहन सिंह, कांग्रेस और समूचे यूपीए की असफलता ही है कि वह इन दस सालों में देश को आगे ले जाने की बजाए वर्षों पीछे खींच ले गई. इस सरकार के रिपोर्ट कार्ड पर गौर करें तो सिर्फ घोटाले और भ्रष्टाचार ही पहले पायदान पर दिखते हैं और यही इस सरकार के दस साल के सफर की सबसे ब़डी उपलब्धि भी है.
p1hindi
वर्ष 2014 की शुरुआत है. तीन महीने के बाद देश में लोकसभा के चुनाव होंगे. लोकसभा चुनाव में कौन दल या कौन गठबंधन जीतेगा, यह अभी तक सा़फ  नहीं हो पाया है. हो सकता है कि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में यूपीए सत्ता में आ जाए. हो सकता है कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में एनडीए सत्ता में आ जाए. यह भी हो सकता है कि कई सारी पार्टियों का गठबंधन तीसरे मोर्चे के नाम पर आए, जिसमें कई पार्टियां बाहर रहें और वह गठबंधन कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से सरकार बना ले. ऐसे में यह भी एक संभावना है कि इसमें एक मोर्चा कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिश करे और दूसरा भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिश करे. वैसे तो ज्यादातर चुनाव अस्थिर होते हैं, अनुमानों से परे होते हैं, क्योंकि जनता का दिमाग़ पढ़ पाना कंप्यूटर के वश की चीज़ नहीं है और एक मानव मन दूसरे मानव मन का आकलन कर पाए, इसकी भी संभावना कम है.
चाहे जो सत्ता में आए, लेकिन जो पिछले दस सालों से सत्ता में हैं, उनका आकलन करना ज़रूरी है. यह आकलन इसलिए कतई ज़रूरी नहीं है कि कौन सत्ता में आए, कौन सत्ता में न आए. हम उस खेल के हिस्सेदार नहीं बनना चाहते हैं, लेकिन यह आकलन इसलिए ज़रूरी है कि चाहे जो सत्ता में आए, उसके सामने सवाल रहें, ताकि दिल्ली की गद्दी पर बैठने के बाद वह उन सवालों से बचने की कोशिश करे. हालांकि यह ख़ुशफ़हमी है, क्योंकि न कोई सवालों से बचा है और न किसी ने कम सवाल खड़े किए हैं. सन् 1947 की आज़ादी और सन् 1950 में देश का संविधान लागू होने के बाद हमारा देश निरंतर समस्याओं के भंवरजाल में घिरता चला गया. गंभीरता से कभी देश की ग़रीब जनता को ध्यान में रखकर नीतियां बनी ही नहीं. नीतियों का शोर हुआ, लेकिन उनके ऊपर पालन कभी नहीं हुआ.
एक कहानी से बात शुरू करते हैं. यह कहानी नहीं है, बल्कि एक सच्ची घटना है और लोकसभा की कार्यवाही में इसका वर्णन है. चंद्रशेखर भारत के प्रधानमंत्री बने थे और 1991 में उनकी सरकार गिर गई. 1992 में पी वी नरसिम्हाराव की सरकार बनी. उनके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे. मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण, यानी नई आर्थिक नीतियों की घोषणा संसद में की और कहा कि यह देश अगले बीस सालों में ग़रीबी से सार्थक लड़ाई लड़ता दिखाई देगा. बेरोज़गारी लगभग ख़त्म हो जाएगी. बिजली सर्वसुलभ हो जाएगी. बुनियादी ढांचा, सड़क, संचार, परिवहन और पानी, ये सब देश के लोगों को उपलब्ध होंगे. इन सबके ऊपर वह सारगर्भित भाषण दे रहे थे. इसके बाद प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव खड़े हुए और उन्होंने आर्थिक नीतियों की तारीफ़ में काफ़ी अच्छे शब्द कहे. भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर उस लोकसभा के सदस्य थे. वह दसवीं लोकसभा थी. नरसिम्हाराव बैठ गए और चंद्रशेखर ने इन नीतियों के विरोध में प्रभावशाली भाषण दिया. उन्होंने कहा कि आज से 20 साल के बाद निराशा चरम सीमा पर होगी, भ्रष्टाचार बढ़ जाएगा. ग़रीब की आशाएं ख़त्म हो जाएंगी और यह देश गृहयुद्ध के दरवाज़े पर खड़ा दिखाई देगा. उन्होंने साफ़ कहा कि जो नीतियां प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव एवं उनके वित्तमंत्री ने देश के लिए बनाई हैं, वे देश के लिए घातक हैं. यह देश टुकड़े-टुकड़े होने की तरफ़ बढ़ चलेगा. चंद्रशेखर जी का भाषण समाप्त हुआ, तो नरसिम्हाराव खड़े हुए और उन्होंने कहा कि चंद्रशेखर जी, आप जब प्रधानमंत्री थे, तो मेरे वित्तमंत्री मनमोहन सिंह जी आपके आर्थिक सलाहकार थे. मैंने उन्हें इसलिए अपना वित्तमंत्री बनाया, क्योंकि मुझे लगा कि वह आपकी ही आर्थिक नीतियों को अमल में लेकर आएंगे. चंद्रशेखर जी फिर खड़े हुए और उन्होंने सिर्फ एक वाक्य कहा और वह वाक्य आज हमारे सामने गीता, बाइबिल और कुरान की तरह ज्ञान देता दिखाई दे रहा है. चंद्रशेखर जी ने कहा कि नरसिम्हाराव जी, मैंने आपको चाकू सब्ज़ी काटने के लिए दिया था, लेकिन आप तो उस चाकू से दिल का ऑपरेशन करने लगे. पूरा सदन सन्न रह गया. तालियों की थपथपाहट लोकसभा में गूंज गई, जिसमें कुछ कांग्रेस के सदस्य भी थे.
आज जब हम विश्‍लेषण कर रहे हैं, तो चंद्रशेखर जी का कहा हुआ वह वाक्य हमें यह बताता है कि सचमुच हमने सब्ज़ी छीलने वाले चाकू से दिल का ऑपरेशन किया और हमारा देश उस मुहाने पर पहुंच चुका है, जिसकी तरफ़ चंद्रशेखर जी ने इशारा किया था. मोटे तौर पर देखें और मोटे तौर पर क्यों, बारीक नज़र से भी देखें, तो जितने घोटाले और भ्रष्टाचार के खुलासे इस दौर में हुए, देश में कभी नहीं हुए. 1991 के बाद खुली अर्थव्यवस्था, यानी बाज़ार के हवाले कर दिया गया देश भ्रष्टाचार की सीमा ही लांघ गया. 1987 में हुए 64 करोड़ रुपये के बोफोर्स घोटाले ने राजीव गांधी की सरकार ही ले ली. लेकिन 1988 के चार साल के बाद 1992 में जब खुली आर्थिक नीतियां लागू हुईं, तो पहला घोटाला पांच हज़ार करोड़ का हुआ. वह घोटाला था हमारे देश का पांच हज़ार करोड़ रुपया विदेशी बैंकों में साइफन कर दिया गया. शोर हुआ, लेकिन तत्कालीन वित्तमंत्री की सदारत में इस घोटाले को बेरहमी से दबा दिया गया. इसके बाद तो फिर हर्षद मेहता से शुरू हुआ भ्रष्टाचार का सिलसिला कोयला घोटाले के 26,000 करोड़ रुपये के आंकड़ों पर जाकर रुका. लगभग 2004 के बाद कोई महीना ऐसा नहीं गया, जिस महीने में भ्रष्टाचार की सुगबुगाहट लोगों के कानों में नहीं पड़ी. और 2009 के बाद तो कमाल हो गया. हर चीज में भ्रष्टाचार.
ऐसा लगा, मानों लूट की मंडी सारे हिंदुस्तान में खुल गई और जिसे मौक़ा मिला, उसने मुंह मार लिया. हालत यह हो गई कि भ्रष्टाचार को लेकर क्या जनता, क्या नेता और क्या अदालत, सभी ने टिप्पणियां कीं, लेकिन इस सरकार, यानी यूपीए-2 ने भ्रष्टाचार को लेकर आंखें बंद कर लीं. न किसी की जांच, न जांच की इच्छाशक्ति और न किसी को दंडित करने का नकली आश्‍वासन. सारी दुनिया में हमारा देश भ्रष्टतम देशों में गिना जाने लगा.
भ्रष्टाचार की एक नई विधा सामने आई. भ्रष्टाचार को गांव-गांव पहुंचा दिया गया. ऐसी योजनाएं बनीं, जिन्होंने संपूर्ण ग्रामसभा को भ्रष्टाचार के दलदल में बैठा दिया. मंत्री से लेकर अफसर और अफसर से लेकर ग्रामसभा, सभी भ्रष्टाचार की पवित्र नदी में गोता लगाने लगे. मनरेगा जैसी योजना देश की भ्रष्टतम योजनाओं में गिनी जाने लगी. लोगों को आत्मनिर्भर बनाने की जगह मौजूदा सरकार ने उन्हें याचक बना दिया, भिखारी बना दिया, भ्रष्टाचारी बना दिया. 100 रुपये रोज की मज़दूरी तय हुई, जिसमें 50 रुपये जिसका नाम लिखा था, वह रख लेता था और 50 रुपये पर काम करने के लिए किसी दूसरे को भेज देता था. यह वृत्ति हर जगह बढ़ी.
हमें कहते हुए बहुत अफसोस होता है और दु:ख भी कि दोनों कार्यकाल में, अर्थात 2004 से 2009 और 2009 से 2014 के बीच भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर काम करते हुए ही दिखाई नहीं दिए, उनका कोई राजनीतिक बयान नहीं आया, उनके राजनीतिक ़फैसले नहीं आए, उन्हें राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं देखा गया. और जिस देश के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, वी पी सिंह, चंद्रशेखर एवं अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शख्स रहे हों, उस देश में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कद इन सब लोगों के सामने दिखाई ही नहीं देता. कुर्सी दिखाई देती है, लेकिन इंसान नहीं दिखाई देता. मनमोहन सिंह की कोई राजनीतिक छवि बनी ही नहीं. भारत के प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा भी रहे. उनके समय में जितने अच्छे काम हुए, उनके समय में जिस तरह से समस्याओं के ऊपर नियंत्रण किया गया और जिस तरह से देश के किसानों को सुविधाएं या राहत देने की कोशिशें हुईं, उन्हें देखते हुए मनमोहन सिंह की तुलना देवगौड़ा से भी नहीं की जा सकती. दरअसल, मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन तो गए, लेकिन उनकी छवि एक नौकरशाह की ही रही. उनके राजनीतिक सलाहकार बने ही नहीं. उनके नजदीक कोई राजनीतिक व्यक्ति पहुंच ही नहीं पाया. उनके पास थे तो स़िर्फ और स़िर्फ नौकरशाह, दो दक्षिण के और एक पंजाब का. चौथे मनमोहन सिंह. इन चारों की मीटिंग होती थीं. इन्हीं चारों का कोर ग्रुप रहा और इन्हीं चारों ने देश को ऐसी जगह पर पहुंचा दिया, जहां पर हम आज खड़े हैं. नौकरशाह भी स्वतंत्र और मंत्री भी स्वतंत्र. एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने देश को बनाने की जगह देश को आर्थिक बर्बादी के मुहाने पर और चंद्रशेखर जी के शब्दों में, गृहयुद्ध के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया. जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे, तब देश के 62 जिले नक्सलवाद की चपेट में थे और आज जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद से रिटायर होने की घोषणा कर रहे हैं, तब इन दस सालों में देश के 272 जिले नक्सलवाद के प्रभाव में हैं. न यहां विकास है, न शिक्षा है, न अस्पताल हैं, न रोटी है. और यह संख्या बढ़ रही है. शहरों में बड़ी-बड़ी इमारतें बन रही हैं, बड़े-बड़े होटल खुल रहे हैं. नई-नई एयरलाइंस आ रही हैं, लेकिन देश के अस्सी प्रतिशत लोग विकास के दायरे से बाहर हैं.
भारत के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने देश के प्रधानमंत्री के ऊपर शक जाहिर किया. कोयला घोटाले में टिप्पणियां देते हुए प्रधानमंत्री को सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तल्ख टिप्पणी की सीमा में ले लिया. प्रधानमंत्री को यह घोषणा करनी पड़ी कि सीबीआई चाहे तो मुझसे सवाल-जवाब कर सकती है. भारत के प्रधानमंत्री पद का इतना हस या इतना क्षरण पहले कभी नहीं हुआ. माना यह जा रहा था कि भारत का प्रधानमंत्री कभी झूठ नहीं बोलता, लेकिन कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री के बयान, उनका सार्वजनिक स्टैंड और खुद कोयला मंत्री रहते हुए उनके दस्तखत और कोल आबंटन को लेकर सुप्रीम कोर्ट की जांच कराने की गंभीरता ऐसी चीज़ें हैं, जो भारत जैसे देश की सरकार के ऊपर कालिख पोत गईं. मैं ऐसा मानता हूं कि सुप्रीम कोर्ट अगर एक कदम और चलता, तो भारत के प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ता और उसके आगे उनके जेल जाने की संभावना बन जाती. सुप्रीम कोर्ट के ऊपर नज़र रखने वाले, सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों का अध्ययन करने वाले, खुद सुप्रीम कोर्ट से रिटायर कई जजों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने भारत के लोकतंत्र को दागदार होने से बचाने के लिए न्याय के साथ भी समझौता किया. पहली बार ऐसा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को पिंजड़े में बंद तोता कहा, जो अपने मालिक के इशारों के ऊपर गाना गाता है.
देश के इतिहास में पहली बार महंगाई  सारी सीमाएं तोड़ गई, सबसे ऊंचे स्तर पर गई और यह पहली सरकार रही, जिसके कृषि मंत्री ने बोल-बोलकर महंगाई बढ़ाई. उन्होंने दूध का नाम लिया, दूध का दाम बढ़ गया. उन्होंने चीनी का नाम लिया,चीनी का दाम बढ़ गया. दाल का नाम  लिया, दाल का दाम बढ़ गया और इस  सरकार ने सबको खुली छूट दे दी. हर मंत्री  प्रधानमंत्री हो गया. मंत्रियों ने कभी भी  अपने मंत्रालयों को लेकर प्रधानमंत्री से  चर्चाएं की हों, ऐसे समाचार कभी आए ही  नहीं. पहली बार सेना के घरेलू इस्तेमाल  पर बात हुई.
सरकार की काहिली इतनी बढ़ गई कि सुप्रीम कोर्ट प्रो-एक्टिव रोल में आ गया. जो काम सरकार को करने चाहिए थे, उन्हें करने का आदेश सुप्रीम कोर्ट को करना पड़ा. बैलेंस साधने या स्थिति को संतुलित करने के प्रयास में सुप्रीम कोर्ट के कुछ ़फैसलों की आलोचना हुई और यह आलोचना इसलिए स्वीकार है कि अगर सुप्रीम कोर्ट ज़्यादा सख्त होता, तो भारत की सरकार भारत के लोकतंत्र को कमजोर करने के अपराध में हिस्सेदार हो जाती. पहली बार भारत के प्रधानमंत्री ने मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत का उल्लंघन किया और दर्शाया कि सामूहिक जिम्मेदारी जैसी कोई चीज होती ही नहीं. जब कोयला घोटाले की फाइलें गायब हुईं, तो प्रधानमंत्री ने बयान दिया कि मैं कोई फाइलों का रखवाला नहीं हूं. ये फाइलें साउथ ब्लॉक से गायब हुई थीं, ये फाइलें प्रधानमंत्री के मंत्रालय के अंदर से गायब हुई थीं. इसका मतलब है कि इस सरकार में कोई भी टहलता हुआ साउथ ब्लॉक जा सकता था और जो चीज चाहे, लेकर आ सकता था. इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि पाकिस्तान और चीन के जासूस या उनके एजेंट आसानी से प्रधानमंत्री कार्यालय तक अपनी पहुंच बना चुके थे. और यह पहली बार हुआ कि देश के वित्तमंत्री के दफ्तर में जासूसी उपकरण पाए गए. इस घटना की आईबी ने जांच की और उस जांच को भी सरकार ने बेरहमी से दबा दिया.
यह पहली बार हुआ कि भारत के सेनाध्यक्ष के साथ भारत की सरकार मुकाबले में आ गई. और यह भी पहली बार हुआ कि भारत के सेनाध्यक्ष को घूस देने की कोशिश हुई, जिसकी जांच हुई और उस जांच को भी लीपा-पोती की स्याही से रंग दिया गया. यह पहला मंत्रिमंडल है, जिसके मंत्री अपने पद पर रहते हुए जेल गए और प्रधानमंत्री ने पहली बार सरकार के ऊपर लगने वाले आरोपों को प्रतिक्रियाविहीन कर दिया. देश के लोगों के उस विश्‍वास को तोड़ दिया कि उनकी समस्याएं उनके द्वारा आवाज उठने के बाद हल हो सकती हैं. पहले प्रधानमंत्री, जिनके ऊपर आरोप लगा कि उन्होंने संसद में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास करने के बाद भी जनलोकपाल कानून को इतने दिनों तक लटकाया. अन्ना हज़ारे के आंदोलन से सारा देश खड़ा हो गया था. संसद ने प्रस्ताव पास किया, प्रधानमंत्री ने चिट्ठी लिखी, लेकिन प्रधानमंत्री उसे दो साल से ज़्यादा समय तक लटकाते रहे, जब तक अन्ना हज़ारे ने दोबारा अपने जीवन को आमरण अनशन के माध्यम से संकट में नहीं डाला.
पहले प्रधानमंत्री, जिन्होंने माना कि अर्थव्यवस्था 1991 के स्तर पर पहुंच गई है, यानी 23 साल पीछे चली गई है. आख़िर 23 साल खर्च हुआ पैसा कहां चला गया? 23 साल में कोई विकास नहीं हुआ. और जब संसद में खड़े होकर मौजूदा प्रधानमंत्री ने दहाड़ा था वित्तमंत्री होने के नाते कि 20 साल में देश स्वर्ग बन जाएगा, वह सारा समय भारत के इतिहास को विकास की पटरी से हटा गया. देश को बाज़ार के हवाले करने का अपराध भी मौजूदा सरकार ने किया. यह सरकार अब किसी चीज के लिए जिम्मेदार नहीं है. इस सरकार ने बता दिया कि पानी पीना है, तो मिनरल वॉटर की बोतलें खरीदो. सड़क पर चलना है, तो टोल टैक्स दो, क्योंकि हम नदियां बेचेंगे, हम जमीन बड़े उद्योगपतियों को देंगे, हम कल्याणकारी राज्य को नहीं मानते. अगर लोगों को पानी पिलाना है, लोगों को भूख से बचाना है, तो वह भी बड़ी कंपनियां चाहें, तो कर लें. सरकार ने स़िर्फ और स़िर्फ देश के खनिज, जंगल और जमीन को बड़ी कंपनियों के हवाले करने का रास्ता खोल दिया.
इस सरकार ने हमारे संविधान को बिना देश और संसद को विश्‍वास में लिए भावनात्मक रूप से बदल दिया. हमारा देश संविधान के अनुसार कल्याणकारी राज्य है. देश में अगर मौतें होती हैं, तो उसकी जिम्मेदारी राज्य, यानी सरकार की है. लोगों का इज्जत के साथ जीना, रोजगार एवं शिक्षा, इन सबकी जिम्मेदारी राज्य की है, लेकिन  पिछले दस सालों में संविधान में कल्याणकारी राज्य का अर्थ बिना संविधान बदले ही बदल दिया गया. और अब प्रधानमंत्री हों, वित्तमंत्री हों, वित्त सचिव हों, विपक्ष की सरकारें हों, ये सब बाज़ार-बाज़ार चिल्ला रहे हैं. पहली बार इस सरकार ने दो समझौतों के ऊपर खुद के गिरने की भी परवाह नहीं की. पहला था, न्यूक्लियर डील. पूरा देश इसके ख़िलाफ था, संसद इसके ख़िलाफ थी, पर लोगों को साम-दाम-दंड-भेद से अपने पक्ष में कर न्यूक्लियर डील की गई और इस देश को एक नए ख़तरे के हवाले कर दिया गया. और दूसरा मौका भारत में विदेशी पूंजी निवेश को लेकर था. देश में पूंजी निवेश के मसले पर भी संसद की बांह मरोड़ कर इस सरकार ने कानून बनवाया. आख़िर इतना बड़ा ख़तरा इस सरकार ने क्यों उठाया? सरकार ने कभी भी रोजगार के अधिकार को, भोजन के अधिकार को, शिक्षा के अधिकार को लेकर बात नहीं की, लेकिन अमेरिकी हितों को, उनकी अर्थव्यवस्था को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से ये दोनों समझौते इस सरकार ने किए.
पहली बार विरोधी दलों को सरकार ने अनदेखा किया. हालांकि विरोधी दल खुद ही बिकने को तैयार थे. उन्होंने विरोधी दल का धर्म पिछले दस सालों में निभाया ही नहीं. शायद इसका कारण यह है कि किसी न किसी प्रदेश में कोई न कोई दल सत्ता के ऊपर काबिज है. इसलिए सबको वही बीमारी लग गई, जो दिल्ली में सत्ताधारी दल को लगी हुई है. पहली बार पिछले दस सालों में सर्वदलीय बैठकें नाममात्र की हुईं. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कमेटियों की बैठकें नहीं हुईं. विपक्षी नेताओं से राय-मशवरे नहीं हुए. कुछ अवसरों पर हुए, जिनमें लगा कि इसमें रस्म निभाई जा रही है. पहली बार हुआ कि देश में आम राय बनाने की कोई कोशिश सरकार की तरफ़ से हुई ही नहीं. पर सर्वदलीय बैठकें न होने का या राष्ट्रीय एकता परिषद (नेशनल इंटिग्रेशन काउंसिल) की बैठकें न होने या उन बैठकों में हुई बातों पर अमल न होने का रोना क्या रोएं, जब अपने सहयोगियों की बातें ही इस सरकार ने नहीं सुनीं.
देश  के इतिहास में पहली बार महंगाई सारी सीमाएं तोड़ गई, सबसे ऊंचे स्तर पर गई और यह पहली सरकार रही, जिसके कृषि मंत्री ने बोल-बोलकर महंगाई बढ़ाई. उन्होंने दूध का नाम लिया, दूध का दाम बढ़ गया. उन्होंने चीनी का नाम लिया, चीनी का दाम बढ़ गया. दाल का नाम लिया, दाल का दाम बढ़ गया और इस सरकार ने सबको खुली छूट दे दी. हर मंत्री प्रधानमंत्री हो गया. मंत्रियों ने कभी भी अपने मंत्रालयों को लेकर प्रधानमंत्री से चर्चाएं की हों, ऐसे समाचार कभी आए ही नहीं. पहली बार सेना के घरेलू इस्तेमाल पर बात हुई. नक्सलवादियों को मारने के लिए इस सरकार ने सेना को नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में लगाने का विचार किया, सेना से विचार-विमर्श किया, लेकिन सेना के अफसरों ने भी पहली बार सरकार के सुझाव को नकार दिया. लेकिन यह संकेत सामने आ गया कि सरकार सेना का घरेलू मोर्चे के ऊपर इस्तेमाल कर सकती है. सरकार का मंत्री और पार्टी का महामंत्री दो अलग-अलग चीजें हैं. सरकार देश की होती है और पार्टी एक विचारधारा की होती है. सरकार का यह कर्तव्य भी है कि जो उसकी विचारधारा को न माने, उसके लिए भी वह काम करे, नहीं तो वह देश की सरकार नहीं मानी जाती. पर हमारे देश के मौजूदा सूचना मंत्री कांगे्रस पार्टी के प्रवक्ता की तरह व्यवहार कर रहे हैं और पार्टी के फैसले मंत्रालय में बैठकर पत्रकारों को बता रहे हैं. वह सरकार की नीति नहीं बताते, बल्कि पार्टी की नीति पत्रकारों को बताते हैं.
किस-किस का जिक्र करें और कैसे करें? बहस इतनी लंबी है और उनमें छुपा हुआ कुछ नहीं है. सारी फेहरिस्त जनता को मालूम है, पर ये सवाल ऐसे हैं, जिनसे आने वाली सरकार को बचना चाहिए. चाहे वह सरकार यूपीए की आए, एनडीए की आए या चाहे फिर तीसरे मोर्चे की आए. अगर इन सवालों का उत्तर नहीं तलाशा गया और ऐसे सवालों को उभरने से नहीं रोका गया, तो सचमुच भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का दु:स्वप्न, उनकी चेतावनी सच साबित हो जाएगी, जो उन्होंने नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री रहते
हुए आर्थिक सुधारों पर चर्चा के समय संसद में दी थी कि 20 सालों के बाद यह देश स्वर्ग नहीं बनेगा, बल्कि ऐसे मुहाने पर जा खड़ा होगा, जहां से गृहयुद्ध का मैदान बहुत दूर नहीं रह जाएगा.
- See more at: http://www.chauthiduniya.com/2014/01/bharart-ban-gaya-duniya-ka-sabse-bhrast-prajatantra.html#sthash.ZD89Z5ZJ.dpuf